Sunday, 27 July 2025

kailashmansarover yatra 13

 पतली सड़क एक तरफ पहाड़ जिनसे मोटी धार बहकर आ रही थी दूसरी तरफ नीचे से नदी की घोर गर्जना जैसे बहुत क्रोधित हो,कभी कइसके अलावा और कुछ नहीं । हम भी चुप थे । श्रीमती महेन्द्र कभी कभी झोंका ले लेती उनका सिर मेरे कंधे पर लुढकता फिर सीधी हो जातीं और इधर उधर देखने का प्रयास करतीं ।कभी किसी पक्षी या जानवर की चीत्कार सुनाई पड़ जाती। 

अभी प्रार्थना ठीक से पूरी भी नहीं हुई थी कि लगा विंड स्क्रीन पर पानी एकदम कम कम आ रहा है  नन्हीं नन्हीं फुुहारों के रूप में फिर वह भी एक दम बंद हो गया । यह कैसा चमत्कार इधर मन ने सोचा उधर पानी बंद ।‘अरे तब तो बाबा ने ही बुलाया है तब काहे की चिंता । सब रास्त्ेा सहज किये हैं तो यह भी अच्छी तरह कट जायेगा ’’ जैसे सारा भय छू मंतर हो गया।ऑंख अंधेरे को चीर कर देखने का प्रयास करने लगी । कभी कभी गाड़ी की छत पर एकदम पहाड़ का पानी गिरता और गाड़ी के चारों ओर झरना सा बन जाता या गाड़ी के प्रकाष में हरियाली चमक जाती ।

    करीब आधा रास्ता पार करने  पर गाडी  एक तरफ रुक गई । आगे भी गाड़ियॉं रुकी हुई थीं । क्यों रुकीं ? यह कैसे ज्ञात हो? ड्राइवर और गाड़ी में बैठा रहाष्शेरपा तुरंत उतर कर  अन्य ड्राइवरों से बात करने  लगे बस यह ज्ञात हुआ कुछ हो गया है ।

‘ हे षिव जी महाराज जो कुछ भी हुआ हो सब सकुषल हों ’ मन ही मन  हरपल  षिव जी याद आ रहे थे । इन्सान कितना स्वार्थी होता है यह उस समय के विचारों से ज्ञात हो सकता है एक तरफ सब सकुषल हों  सर्वहित भावना थी  पर साथ ही कहीं दबी दबी भावना यह थी कम से कम हमारे दल के किसी को कुछ न हो अर्न्तनिहित भावना हमारी यात्रा में विघ्न न पड़े ।षेरपा और ड्राइवर की भाषा मिली जुली तिब्बती हिन्दी थी और समझने में परेषानी नहीं थी । वे आपस में बात कर रहे थे  ‘कल यहीं तो हादसा हुआ था पर कुछ ही देर में चलो चलो का ष्शोर मच गया। एक गाड़ी जरा गरम हो गई थी  ठीक करली काफिला चल दिया। रात्रि दो बजे के आस पास हम निलायम् पहुॅंचे  गाड़ियॉं अंधेरे में खड़ी हो गईं बिजली थी नहीं  टार्च की रोषनीमें एक एक कर कमरे बुक होने लगे । सब कमरों को देख रहे थे अच्छे से अच्छा कमरा बुक कराने में लगे थे । हमारी यात्रा स्वतन्त्र थी हम चारों की बुकिंग नेपाल के प्रेमप्रकाष जी ने सीधे रिचा ट्रेवल्स से कराई थी इसलिये हमारे लिये आगे बढ़कर देखने वाला कोई था नहीं सबसे बाद में बचा हुआ कमरा पूरी यात्रा में हमारे हिस्से आता रहा इस पर कहीं कहीं बुराभी लगता रहा । घर से सोच कर चले थे अनजान प्रदेष में अनजान लोगों के बीच जा रहे हैं स्वयं परम पिता ने बुलाया है तो ध्यान भी वे ही रखेंगे । बदमजगी करके यात्रा  का मजा खराब और सहयात्रियों के साथ किसी प्रकार की असहजता महसूस नहीं करना चाहते थे । उस समय मन में षिव थे मॉं पार्वती थीं  तब ये सब बातें बहुत छोटी लग रही थीं । यात्रा का अपना आनंद होता है जहॉं विष्वास और श्रध्दा है वहॉं इन बातों की उपेक्षा करनी ही पड़ती है ।  


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