Saturday 26 February 2022

mahrshi Dayanand

 महर्षि दयानन्द महान समाज सुधारक

महर्षि दयानन्द महान समाज सुधारक ,ऐसे वक्त मे अपने विचारों को लेकर खड़े हुए जब देष अंधविष्वासों मे जकड़ा हुआ था। बार बार दासता की जंजीरों की वजह से बहुत सी कुरीतियाॅं व्याप्त थी। कट्टर मानस के व्यक्ति देष को गर्त ओर ले जा रहे थे। ऐसे समय महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म 1824 में फरवरी 12 को कर्षन जी के यहाँ मोरवी राज्य के टंकारा नगर के जीवापुर मुहल्ले में हुआ । उनका मूल नाम मूलषंकर था लेकिन प्यार से उन्हें दयाराम भी कहा जाता था। 

उनकी षिक्षा 5 वर्ष की अवस्था में प्रारम्भ हुई पिता परम षिवभक्त थे। चैदवें वर्ष की आयु में दयाराम को पिता ने षिव जी का व्रत षिव रात्रि को रखने के लिये कहा। षिव रात्रि को उनसे अनुष्ठान कराकर पूजा बिठाई उसमें पुजारी का सोना निषेध होता है। एक चूहा षिवजी की मूर्ति पर चढ़े अक्षत खाने लगा। मूल जी के मस्तिक में झंझावत उठ खड़ा हुआ। षिव तो दुर्दांत दैत्य दलनकारी है। और एक छोटा सा जीव उनके सिर पर विराजमान है वे उसे हटा नही पा रहे। उसने अपने प्रश्न का समाधान पिता से चाहा पर पिता के इस समाधान से संतुष्टि नही मिली कि यह पाषाण मूर्ति पूजा है । यदि पाषाण है तो पूजा कैसी? यहीं से वे मूर्ति पूजा विरोधी हुए । बहन की व अपने चाचा की विसूचिका से मृत्यु से उन्हें वैराग्य हुआ। 22 वर्ष की अवस्था में अपने विवाह की तैयारियाँ होते देख वे घर से भाग गये। श्रंगृवेरी मठ द्वारका जा रहे एक सन्यासी पूर्णानन्द ने इनका नाम दयानंद सरस्वती रखा। तब से वे अनेक स्थानों पर भ्रमण करते ज्ञान प्राप्त करते रहे और सन् 1880 में कार्तिक शुक्ला द्वितीया को वे मथुरा आये वहाँ दण्डी स्वामी विरजानंद से शिक्षा लेने पहुँेेचे। वे आर्ष साहित्य समर्थक थे। वे उन्हें कालजिव्ह और कुलक्कर कहते थे। (कालजिव्ह का अर्थ है जिसकी जिव्हा असत्य का खंडन करे) कुलक्कर का अर्थ है खूंटा ( जो विपक्षी को पराभूत करने में द्वृढ हो) वे वेदों को सत्य मानते थे। 

तीन वर्ष उनके पास अध्ययन कर वे 1863 मेें सेठ गुल्लामल के बाग आगरा में ठहरे। वे जगह जगह प्रवचन करते। अठारह पुराण मूर्ति पूजा शैव शाक्य ,रामानुज सम्प्रदाय तन्त्रग्रन्थ ,काम मार्ग, भाँग, शराब आदि का खंडन करते उन्होंने पहली पाठशाला कासगंज में 1870 में बनाई। कासंगज में एक दिन युद्धरत दो साड़ों को  सींग पकड़ कर इतनी जोर से धक्का दिया कि दोनों का मुँह आकाश की ओर उठ गया। 

1890 में महर्षि अनूपशहर पहुँचे वहाँ एक पंडित ने महर्षि को पान में जहर दिया लेकिन योग की न्यौती किया से महर्षि ने विष को बाहर कर दिया पूरे देश में महर्षि ने व्याख्यान दिये। वे संस्कृत में व्याख्यान देते थे। केशवदेव ने महर्षि कांे हिन्दी में व्याख्यान देने को कहा तबसे दयानन्द हिन्दी में व्याख्यान देने लगे। आर्य समाज की स्थापना चैत्र प्रतिपदा संवत् 1932 सन् 1837 को गिर गाँव में हुई। 

परन्तु ज्यों ज्यों उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई उनके दुश्मन बढ़ते गये। पंडितों आदि को अपना व्यवसाय खतरे में लगा। पूरे जीवन काल में उन्हें 10 बार विष देने का प्रयास किया गया। सन् 1883 मई 28 को अजमेर फिर पाली से जोधपुर पहुँचे जुलाई के अन्त में जोधपुर नन्ही वेश्या के प्रेम को छोड़ने के लिये जोधपुर नरेश को पत्र लिखा। 30 सितम्बर को अथवा 1 अक्टूबर को रात्रि के समय चोलमिश्र के हाथ दूध पीकर जब सो गये तो उदरशूल से जी मिचलाने लगा। तीन बार वमन हुआ। चोलमिश्र अथवा जगन्नाथ पंडित ही था जिसने महर्षि के दूध में जहर दिया था उसे नन्ही वेश्या ने जहर दिया था। पंडित ने जहर तो दे दिया लेकिन पश्चाताप् से भर उठा।महर्षि को ज्ञात हुआ जो उन्होंने  उसे रूपये देकर तत्काल नेपाल निकाल जाने के लिये कहा। ‘मैं किसी को कैद कराने नही आया संसार मात्र को मुक्त कराना मेरा कर्तव्य है।’ 30 अक्टूबर दीपावली के दिन संध्या 6 बजे 

  महर्षि दयानन्द ने जाति को कर्म से बांधा जन्म से नहीं उन्होंने  ईश्वर को सृष्टि का निमित्त एवम् प्रकृति को अनादि शाश्वत माना। राष्ट्रीय जागरण समाजिक पुनरुत्थान में स्त्रियों की भागीदारी करने के पक्ष में थे। 

महर्षि दयानन्द महान समाज सुधारक ही नहीं थे। उन्होंने स्वराज्य की प्रथम जोत जलाई। वे ही थे जो पराधीन भारत में यह कहने का साहस कर सके कि आर्यावर्त ( भारत ) भारतीयों का है। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के सूत्रधार भी दयानंद सरस्वती थे । 1857 की क्रान्ति की संपूर्ण योजना भी स्वामी जी के नेतृत्व में तैयार की गई थी। 1855 को हरिद्वार में एकान्त स्थान पर उन्होने अजीमुल्ला, नाना साहेब, बाला साहिब, तात्या टोपे तथा बाबू कंुवर सिंह से मुलाकात की और देश की आजादी के लिये योजना तैयार की। 

1857 की क्रान्ति की असफलता पर दयानन्द सरस्वती ने हतोत्साहित क्रान्तिकारियों में अपने इस कथन से प्राण फूंक दिया‘ स्वतन्त्रता संघर्ष कभी असफल नहीं होता । भारत धीरे धीरे एक सौ वर्ष में परतन्त्र बना है। अब इसकी स्वतन्त्रता प्राप्ति में बहुत से अनमोल प्राणियों की आहुतियां डाली जायेगी। अनेको ग्रंथ लिखे सत्यार्थ प्रकाश प्रमुख ग्रंथ है। 

दयानन्द सरस्वती महान समाज सुधारक योगी दार्शनिक पाखंड विरोधी भारत को एक महान देश बनाने उसका कायाकल्प करने की भावनाओं से ओतप्रोत थे । 







Sunday 13 February 2022

Mahila sashaktikaran

 महिला सशक्तीकरण 


एक पिंजरे  में कैद  चिडिया और आसमान में उडान भरती चिडिया के स्वभाव में खासा अंतर हेाता है। पिंजरे में कैद चिडिया संुन्दर भले ही हो मगर वह चहचहाती नहीं है। झालक जाती है आॅखे में समाई मजबूरी सहमेपन का सा भाव जबकि आसमान में उडान भरती चिडिया की आॅखों में झलकती है आत्मविश्वास की चमक ।,वह दिल खोलकर चहचहाती है। उसमें चुनोंतियो से जूझने का हौसला भी पैदा होता है। यही हौसला महिला में शक्ति पैदा करता है। उसे कभी कल्पना चावला तो कभी इंदिरा नुेहरू तो कभी किरण बेदी बनाता है। वह पूरे दम खम से संघर्षरत है। वह अपने चारो ओर बंधी अर्गला को काटकर अपनी अलग पहचान बनाने में सफल हुई है। वह पायलट बनकर देश की आर्थिक प्रगति में भागीदार बनती है। राजनेता बनकर देश की नीतियांे और विकास कार्य में अपना पक्ष रखती है। घर और बाहर दोनों का भार बखूबी निभाती है, आज की नारी अपने आस्तित्व को पहचानने की पहल कर रही हेै अपने अधिकारों के लिये सजग है। प्रंेम  जबतक आकर्षण के रूप में है तब तक प्रेमी प्रेमिका दोनों मालिक होते हैं विवाह में परिवर्तित होते ही मालिक नौकर का भाव आ जाता है और नारी नौकर होने का सुख भोगती है उसमें ही मस्त रहती है पर जहाॅं जरा सा मलिक बनने की ओर कदम बढ़ाना चाहती है या हक की बात करती है तो झगड़ा होने लगता है। तब प्रेम युद्ध की स्थिति पैदा कर देता है सन् 1960 के दशक में महिला सशक्तीकरण एक मुद्दा एक विचार बना । यह आंदोलन  भारत ही में नहीं विश्व में फैला । अर्थात  नारी पुरुषों के समान किसी भी देश में सक्षम और सशक्त नहीं है। उसे दोयम दर्जो का स्थान मिला हुआ है । विश्व भर में अनेक योजनाऐं महिला सशक्तीकरण के लिये चलाई गयी हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने तो एक पृथक कार्यक्रम चलाया हेै।

 यद्यपि अभी भी शारीरिक हिंसा और उत्पीडन की शिकार हैं लकिन अब सामाजिक न्याय और आर्थिक संबलता की ओर कदम बढ़ा कर गरीब अनपढ और पिछडें समाज की महिलाएॅं जो अधिक उत्पीडन का शिकार होती हैं, अब अन्याय के खिलाफ उठकर खडी हो गई हेैं वे अपना हक मांग रही हैं। उसके लिये हर चुनौती का सामना कर रही है। उदाहरण है बुदेलाखंड की पांच सौ औरतों का गुलाबी गिरोह। एक अर्धशिक्षित महिला संपतदेवी द्वारा संगठित यह गिरोह है। सरकारी महकमे में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खडा हुआ है। इस गिरोह की सबसे बडी उपलब्धि-,, राशन काला बाजार में जाने से रोकना है। संपत देवी  का कहना हेै देश आसानी सें तो आजाद हुआ नही हैं अरे जान एक बार जायेगी दस खलनायक हमें परेशान करे क्या ? पूरा बुदेलखण्ड हमारे साथ हेै। देश के कई राज्यों में महिलाओं ने स्वशक्ति स्वयं सहायता समूह बना लिये हैं इसने आर्थिक आत्मानिर्मरता के क्षेत्र में क्रंाति लादी है।विश्व महिला दिवस की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने 1975 में की थी, लेकिन इसका आरम्भ बहुत पहले ही हो गया था। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ मंे ही महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति सजगता आ गई थी । यूरोप में बदलाव आ रहा था। 1911 मंे काोपेनहेग जर्मनी मंे सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की क्लारा जेटिकन ने विश्व महिला दिवस का विचार रखा और 19 मार्च को यूरोप के बहुत से देशों में पहली बार विश्व महिला दिवस का आयोजन हुआ। इसमें 10 लाख से ज्यादा महिलाओं और पुरुषों ने भाग लिया । यह दिवस महिलाओं के ही नहीं  एक तरह से सभी के लिये सामाजिक न्याय व  समानता की आवाज उठाता रहा। अमेरिका मंे भी अपने अधिकारों के प्रति चेतना जाग्रत हो रही थी । 1908 मंे करीब 1500 महिलाओ ने सड़क पर आकर पहली बार यह आवाज उठाई कि उन्हें वोट का अधिकार मिले । 28 फरवरी 1909 को वहाॅ महिलाओं ने अपना पहला महिला दिवस मनाया और यह सिलसिला 1913 तक चलता रहा यूरोप मंे 1913 में विश्व महिला दिवस की तिथि 8 मार्च तय की गई और इसी तारीख को बाद में संयुक्त राष्ट्र की मान्यता मिली। इस एक शताब्दी का सफर महिलाओं के लिये आगे और आग जाने तमाम उपलब्धियों का सफर है।


 जम्मू कश्मीर की महिलाओं ने अतंकवादियों के खिलाफ स्वयं हथियार उठा लिये हैं। अवामी नामक इस संगठन की महिआएॅं कहती हैं अपने ऊपर अत्याचार कराने से अच्छा मरना, मारना सीख लें। उत्तरांचल झारख्ंाण्ड मध्य प्रदेश मेें महिलाआंे द्वारा शराब विरोधी अंदोलन चलाये गये । आदमियांे की शराब खोरी की वजह से महिलाओं को जो उत्पीडन सहना पडता है, उसके खिलाफ लामबंदी कर हजारों लीटर शराब नष्ट कर दुकाने बंद कराई । यहाॅ महिलाओ ने अपनी शक्ति का उपयोग संगठित होकर किया अपने को कमजोर नही माना । एकता  में संगठन में बहुत शवित हैं जो कमी प्राकृतिक रूप से महिला  मंे है कि वह निर्बल रह जाती हैं अबला नही ,शारीरिक रूप से उसमें पुरुष का सामना करने की शाक्ति नही है तो उसे संगठित होकर पूरा किया जा सकता हेै । अरब देश की महिलाण्ें भी पुरुष सत्तात्मकता के खिलाफ उठ खड़ी हुई हैं। इसके लिये उन्होंने भीषण यातनायें सहीं । प्रताड़ना यौन उत्पीड़न आदि सहन किया। उनका कहना है पितृसत्तात्मक व्यवस्था के हटे बिना आजादी मुमकिन नहीं । इसके लिये उन्होंने जगह जगह प्रदर्शन कर कुछ कानून अपने हित में कराये ।

जहा तक अधिकारों की बात है, अधिकार लडकर नही प्राप्त किये जा सकते हैं महिलाओं को भी पूरे अधिकार प्राप्त हेैं पर क्या महिलाएं अपने हर अधिकार के लिये कानून का दरवाजा खटखटायेगी। क्योकि शोषण महिलाओं का हर कदम पर है और कारण हैं वह अपने को आश्रित मानती हेै। आर्थिक स्वतन्त्रता इतना आत्म विश्वास दे देती हैं कि वह अपने अधिकार अपने आप जान  जाती हेै।

 कुछ अधिकार ऐसे हैं जिन्हे माॅ को बच्ची को देने होंगे । स्वयं ही जब अपने को सीमित कर लेगी तो कैसे वह अपनी बच्ची को इस योग्य बनायेगी कि वह पुरुषेां के साथ कदम से कदम मिला कर चल सके। आर्थिक स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक नहीं कि काम काजी ही हो  जो कामकाजी महिलाएॅ दोहरी जिंदगी जी कर और भी पिसती ंहैं आर्थिक स्वतन्त्रता मिलती है, पर परिवार छिन जाता है। जहा एकल परिवार है वह्राॅ महिला नौकरी कर लेती हैं पर जब बच्चे होते हैं तब समस्या रहती है, तब परिवार की इच्छा होती है।वह चाहती है कि कोई बच्चे को संभाले तब वह नौकरी करे। घरेलू महिलाएॅं कम उपयोगी नहीं होती हैं। वह परिवार का पालन पोषण बच्चों की शिक्षा दीक्षा का पूरा भार वहन करती हैं ऐसे में उसे आर्थिक स्वतन्त्रता रहनी चाहिये। विवाह के साथ ही यह निश्चय रहना चाहिये कि यंिद परिवार चलाने की जिम्मेदारी उसकी है तो अर्थ की देख भाल भी उसकी जिम्मेदारी है। एक विश्वास ,एक आत्म विश्वास पैदा होगा और स्वतन्त्र निर्णय मी तब ही ले पायेगी बस दृढता होती चाहिये अपने आस्तित्व की लडाई, के लिये अपने को अंदर से मजबूत करना चाहिये। भारत की महिलाओं के सामने बहुत सी चुनौतियाॅं हैं । यद्यपि कदम दर कदम हर चुनौती का जबाव देती नारी आगे और आगे बढ़ती जा रही है । कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहाॅं नारी पुरुष से पीछे है। साड़ी कपड़ा जेवर चैके चुल्हे से कहीं ऊपर उसे दुनिया नजर आने लगी हैं 

नारी में अदम्य शक्ति है वह जो मन में ठान लेती है पूरा ही करके मानती है । देश की प्रगति समाज की प्रगति महिलाओं की प्रगति पर निर्भर है । महिला समाज की निर्माता हैं ।महिलाऐं  पुरुष की भाग्य रेखा हैं। समाज की राष्ट्र की घुरी हैं महिलाऐं । दूसरों की दया या मेहरबानी की ओर देखना  यही स्त्री को कमजोर बनाता है। स्त्री अपने हाथ में महिला दिवस का झुनझुना पाकर उसे खुशी खुशी बजाती है पर क्या यह स्वर्य महिलाओं के लिये सार्थक प्रयास है। एक दिन क्यों 365 दिन महिलाओ के है और हर दिन को अपना दिन मानकर अपने को मजबूत किया जा सकता है। तब ही महिला सशक्तीकरण सार्थक होगा नही तो ऐसे ही महिला रिरियाती रहेगी अपने अधिकार मांगती  रहेगी मांगने वाला तो हमेशा दोयम होता है। तो दोयम क्यों बने, दाता हैं जन्मदाता, जीवन दाता आगे भी दाता ही बने। महिलाओं को यदि अपना अधिकार लेना है तो दूसरी महिलाओं को अधिकार देेने होंगे । अपनी इज्जत कराने के लिये दूसरी महिलाओं को भी स्थान देना होगा तभी पुरुष वर्चस्व में सेंध लगेगी । 

डा॰ शशि गोयल                         

सप्तऋषि अपार्टमेंट

जी -9 ब्लाॅक -3  सैक्टर 16 बी

आवास विकास योजना, सिकन्दरा

आगरा 282010मो ॰9319943446

म्उंपस दृ ेींेीपहवलंस3/हउंपसण्बवउ



Sarojni Naydo on her birthday

 श्रीमती सरोजनी नायडू

प्रथम राज्यपाल

पन्द्रह अगस्त 1947 ,भारत ने आजादी की सांस ली और नये जीवन के लिये अपने पग बढ़ाये। विशाल साम्राज्य और प्रशासनिक नेतृत्व से अनजान नेताओं पर ही सबकी आँखे टिक गई। शासन की बागडोर संभालना क्या आसान काम था ? केन्द्र में कांगे्रस ने शासन संभाला। स्व॰ राजेन्द्र प्रसाद सर्वोच्च पद पर आसीन हुए, और जवाहर लाल नेहरू प्रधान मंत्री। हर राज्य में कांगे्रस के ही प्रतिनिधि राज्यपाल बनाये गये। उत्तर प्रदेश विस्तार और जनसंख्या की दृष्टि से भारत का सबसे बड़ा प्रदेश है उसके लिये जो राज्यपाल चुनी गई वो थीं श्रीमती सरोजनी नायडू। उस पद को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा  ‘मैं अपने को  कैद कर दिये गये जंगल के पंछी सा अनुभव कर रही हॅूं ।’ स्वतन्त्र भारत में महिलाओं के लिये शासन में पहला कदम। उन्होंने राज्यपाल के पद पर आरूढ़ होने के बाद अपना भाषण दिया।

”हे संसार के स्वतंत्र राष्ट्रो, हम अपनी स्वतंत्रता के दिन हम आपकी स्वतंत्रता के लिये प्रार्थना करते हैं। हमारा सतत महान संघर्ष था। अनेकांे वर्षों तक चलने वाला और अनेकों की बलि लेने वाला यह संघर्ष था नाटकीय संघर्ष। मुख्य रूप से यह अज्ञात लाखों वीरों का एक संघर्ष था। उस शक्ति में परिवर्तित उन स्त्रियों का संघर्ष था जिसकी वे पूजा करती हैं। वह युवकों का संघर्ष था, अचानक स्वयं शक्ति, बलिदान और आदर्शो में परिवर्तित।

आज हम दुःखों की कड़ाही से दोबारा पैदा हुए हैं। संसार के राष्ट्रो! में तुम्हें अपनी भारत माता के नाम अभिवादन करती हूँ। मेरी माता जिसकी छत पर वर्फ का छप्पर है, जीवित समुद्र जिसकी दीवालें हैं जिसके दरवाजे हमेशा तुम्हारे लिये खुले हैं। क्या तुम शरण या सहायता चाहते हो, क्या तुम पे्रम या सद्भावना चाहते हो, आओ, भारत जो कभी अतीत में मरा नहीं था जो भविष्य में अनश्वर रहेगा और संसार को अंतिम शांति की ओर ले जायेगा।“

सरोजनी नायडू का जन्म 1979 ई॰ में 13 फरवरी को हैदराबाद में हुआ। पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एवम् माता वरदा सुन्दरी की आठ संतानों में वे प्रथम संतान थी। अघोरनाथ मूलतः बंगाल के एक गाँव ब्रहमनगर के निवासी थे। वे रसायन शास्त्र के पंडित थे उन्होेंने ऐडिनबरा जाकर रसायनशास्त्र की डिग्री प्राप्त की थी। वे कट्टर ब्रह्म समाजी थे और ब्रह्म समाज के संस्थापक श्री केशवचंद्र सेन के शिष्य थे। अघोरनाथ भाषाविज्ञ थे।

उन्हें भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंगे्रजी, जर्मन, फ्रेंच और हिबू्र आदि भाषाएं भी भली प्रकार आती थी। उनका कई शिक्षण संस्थाओं से संबंध था तथा हैदराबाद काॅलेज के प्राचार्य थे। उन्होंने राजनीति में भी हाथ आजमाया। राजनीति में प्रवेश कर कांग्रेस के मेम्बर बने फलस्वरूप उन्हें हैदराबाद काॅलेज से निकाल दिया गया लेकिन इतने विद्वान आदमी को निष्कासित करने पर उन्हें अफसोस हुआ और उन्हें दोबारा प्रार्थना करके बुला लिया गया। यही काॅलेज बाद में उस्मानिया काॅलेज के नाम से जाना गया। अघोरनाथ का संबंध अनेक उच्चशिक्षण संस्थाओं से था इसलिये घर में अनेक विद्वान आते तब स्वाभाविक रूप से सरोजनी उनसे सीखती रहीं और भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का ज्ञान प्राप्त करती रहीं उन्होंने जातीय एकता का पाठ इन्हीं मेहमानों से पढ़ा।

अपने घर के वातावरण के बारे में उनके कवि भाई द्वारा लिखी पंक्तियाँ ‘ज्ञान और संस्कृति का संग्रहालय, अद्भुत लोगों से भरा हुआ चिड़ियाघर,’ इनमें से कुछ रहस्यवाद की ओर झुके हुये थे, क्यांेकि हमारा घर सबसे लिये एक समान खुला हुआ था।’ इनकी माॅं वरद सुंदरी बाग्ंला में कविता करती थीं।

ज्ञान संस्कृति और चेतना उन्हें बचपन ही में प्राप्त हो गई थी, तथा अनेक भाषाएंे धाराप्रवाह बोलना आ गया था। पिता ने उन्हें अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाना प्रारम्भ किया, क्योंकि उनकी बुद्धि चातुर्य से प्रभावित थे और चाहते थे वे कोई महान वैज्ञानिक या गणितज्ञ बनें। लेकिन भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है यह वो नहीं जानते थे, कठोरता और नीरसता के विपरीत वे कोकिल कंठी कवियत्री और राजनीतिज्ञ के रूप में उभरीं। यथार्थ से अधिक वे कल्पना लोक में विचरती थीं। उन्होंने एक स्थान पर लिखा है, ”ग्यारह वर्ष की उम्र में मैं बीजगणित के एक सवाल के ऊपर आहें भर रही थी, वह ठीक नहीं बन रहा था किन्तु उसकी जगह एकाएक पूरी कविता सूझ गई, मैने उसे लिख डाला। उस दिन मेरा कवि जीवन प्रारम्भ हो गया। तेरह वर्ष की अवस्था में मैंने एक लम्बी कविता लिखी ”ए लेडी आफ द लेक“ छः दिन में तेरह सौ पक्तियों की यह रचना लिखी तथा दो हजार शब्दों का फारसी भाषा का नाटक ‘माहेर मुनीर’ लिखा। ‘एक संपूर्ण भावनामय कृति जिसे मैंने बिना सोचे बिचारे क्षणोन्माद में ही लिखना प्रारम्भ कर दिया था वह भी केवल चिकित्सक की अवहेलना के लिये क्योंकि उन्होंने कहा था कि मैं बहुत बीमार हूँ और मुझे किताब को हाथ भी नहीं लगाना चाहिये।“

इस नाटक की कुछ प्रतियाॅं पिता अघोरनाथ ने मित्रों और रिश्तेदारों के बीच बाॅंटी एक प्रति हैदराबाद निजाम के पास भी भेजी वे उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। 

ं हैदराबाद में लड़कियों की शिक्षा के लिये कोई भी शिक्षण संस्थान नहीं था अतः उनकी शिक्षा मद्रास में हुई। उन्होंने मैट्रिक में सर्वोच्च अंक प्राप्त किये।

मैट्रिक के पश्चात कुछ दिन वे केवल कविता और गीत रस माधुरी का आस्वादन करती रही। उन्हीं दिनों डाॅ॰ गोविन्द राजलू नायडू के प्रति उनके मन में कोमल भावनाएं जन्म लेने लगीं लेकिन अघोरनाथ जानकर क्षुब्ध हो गये,  उसका कारण था एक तो डाॅ॰ नायडू विधुर थे एवम् सरोजनी से उम्र में बड़े भी थे। सरोजनी की उम्र उस समय पन्द्रह वर्ष थी जबकि नायडू पच्चीस छब्बीस के थे। दूसरे वे छोटी उम्र में लड़कियों के विवाह के विरुद्ध थे, तीसरे जातिगत भिन्नता भी थी। 1895 में  अघोरनाथ ने उच्च शिक्षा के लिये उन्हें लंदन भेज दिया। हैदराबाद निजाम द्वारा छात्रवृत्ति प्रदान की गई । वहाँ विभिन्न प्रकार से ज्ञानार्जन करने लगी। दो वर्ष वहाँ अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। साथ ही वे कविता लिखती रहीं । हैदराबाद निजाम द्वारा उन्हें आगे पढ़ने के लिये वजीफा दिया गया। प्रेम का अंकुर लंदन प्रवास के दौरान और पुष्ट हो गया।

लंदन से लौटकर विवाह की चर्चा चली और सरोजनी ने अपना निश्चय सुना दिया कि वह डा॰ गोविन्द राजलू नायडू से ही विवाह करेंगी। अंत में उनके माता-पिता को उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति के आगे झुकना पड़ा और दो सितम्बर 1898 को विवाह डाॅ॰ गोविन्द राजलू नायडू से हो गया।

प्रेम सुख शांति के मध्य वे अपनी जिन्दगी जी रही थीं। उनके चार संतान हुई, जयसूर्य, पद्या, रणधीर एवम् लीलामणि। साथ ही उनकी काव्य निर्झरणी बहती रही, और सरोजनी का नाम अंग्रेजी काव्य जगत में बड़े आदर से लिया जाने लगा।

सन् 1902 में सरोजनी नायडू गोपाल कृष्ण गोखले के संपर्क में आई और उनकी अनन्य भक्त हो गई। उन्हें गुरू रूप में श्रद्धा के पुष्प अर्पित करती थीं, उनके गुणों का प्रभाव उन पर पड़ा । उससे वे सदा आप्लावित रहीं। 1905 में उनकी काव्य कृति ‘गोल्डन थ्रैसहोल्ड’ प्रकाश में आई ।  गाँधी जी से सरोजनी नायडू की मुलाकात 1914 में द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भिक दौर के समय हुई। गोखले और सरोजनी लंदन में थे। गाँधीजी को महात्मा की उपाधि मिल चुकी थी। वे दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों के लिये लड़ रहे। गोखले ने उन्हें लंदन आने के लिये आमंत्रित किया जहाँ अंग्रेजी सरकार को देने के लिये स्मृति पत्र तैयार करना था। सरोजनी नायडू ने लिखा है ”आश्चर्य  की बात है महात्मा गाँधी से मेरी मुलाकात 1914 के यूरोपीय महायुद्ध  शुरू होने के ठीक पहले लंदन में हुई। जहाँ उन्होंने सत्याग्रह के सिद्धान्त का श्री गणेश किया था और अपने देश वासियों के लिये, जो कि उस समय ऋणी बंधुआ मजदूर थे, के लिये विजय प्राप्त की।“

प्रथम दर्शन में सरोजनी नायडू अवाक् थी कि इस व्यक्ति में ऐसा क्या है जो सब उन्हें आदर और श्रद्धा से महात्मा कहते हैं, परन्तु जैसे-जैसे उनके परिचय की गति बढ़ी वे स्वयं उसी श्रद्धा में डूब गई और भारत लौटने पर जगह-जगह जनता को गाँधीजी के संदेश सुनाने लगी। गाँधीजी के संदेशों के माध्यम से सरोजनी नायडू भी जनता में जानी जाने लगीं। गाँधीजी के लंदन से वापस आने के बाद उनके हर कार्य को बढ़ाने में सहायता करने लगीं। 1918 में बम्बई के कांगे्रस अधिवेशन में ‘जागो शक्ति’ कविता सुनाकर अपना ध्यान आकर्षित कर लिया। उन्होंने कुशलता से राष्ट्रीय आंदोलंनों का नेतृत्व किया। गाॅंव गांव घूमकर देश प्रेम का संदेश जन जन के बीच पहुॅंचाती रहीं । वे बहुभाषाविज्ञ थी। प्रदेश और क्षेत्र के अनुसार उनकी भाषा में भाषण देतीं। उनके व्यक्तव्य जन मानस को झकझोर देते थे । 1925 में वे कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षा बनीं और 1932 में भारत की प्रतिनिधि बनकर दक्षिण अफ्रीका गईं 

1919 में अंग्रेजी सरकार ने रौलेट एक्ट पास किया। गाँधी जी के साथ-साथ सरोजनी नायडू ने भी जगह-जगह घूमकर उस एक्ट का विरोध किया। और बड़ी-बड़ी सभाओं में भाषण देकर उस एक्ट का विरोध किया। जलियाँवाला बाग कांड के बाद गाँधीजी ने असहयोग आंदोलन प्रारम्भ किया। लेकिन साथ ही हिंसा भी तांडव करने लगी। चैराचैरी में थाना जलाया गया। पिं्रस आफ वेल्स के आगमन पर हिंसा भड़की और दंगाइयों ने खून की नदियाँ बहा दी। सरोजनी नायडू ने उन दिनों बहुत साहस और धीरज से काम लिया। वे दंगाइयों के बीच घुस जातीं ओर पीड़ितों की सहायता करतीं। घायलों को अस्पताल भिजवातीं। महात्मा गाँधी सरोजनी नायडू के त्याग और सेवाओं से अत्याधिक प्रभावित थे। उन्होंने वेलगाँव कांग्रेस अधिवेशन में कहा था ‘ सरोजनी एक ऐसी स्त्री है जिसे मेरा स्थान लेना है। ’

गाँधीजी जब जेल में थे उनके आदेश पर धरसाना जाकर नमक भंडार पर अधिकार करना था। उन्हें वहाँ नमक कानून तोड़ने पर जेल की सजा दी गई। 1942 में भारत छोड़ो प्रस्ताव के पास होने में गांँधीजी के साथ सरोजनी नायडू को भी आगा खाँ महल में बंद किया गया।

देश के लिये कार्य करते हुए साहित्य रचना के लिये भी समय निकाल लेती थी और अपनी मधुर वाणी से जनता में नया मंत्र फूंक देती। जो उन्हें सुनता मंत्र मुग्ध हो जाता। उनकी वाणी में रस था ओज था माधुर्य था। वाणी में वाग्देवी फूट पड़ती थी और रस निर्झरणी वह उठती थी। वे भारत की कोकिला नाम से जानी जाती थीं। स्वयं गाँधीजी उन्हंे भारत कोकिला और हिन्दुस्तान की बुलबुल कहते थे। उनके ‘समय के शब्द ’ और ‘टूटे पंख’ नामक काव्य संग्रह प्रकाशित हुए ।

श्रीमती नायडू को भाषण देने के लिये कभी तैयारी नहीं करनी पड़ी। अपने लिये तैयार भाषण भी कभी पढ़ कर नहीं दिये। 1947 में लाल किले ‘ऐशियाई सम्बन्ध सम्मेलन’ आयोजित किया गया। सरोजनी नायडू सम्मेलन की अध्यक्षा चुनी गईं ।  अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा ”आप लोग जो गहरी पहाड़ी, घाटियों से चलकर रंगीन समुद्रों की विशाल छातियों पर तैरकर प्रभात और अंधकार के बादलों पर सवार होकर आये हैं उनमें से कितने इस बात को समझते हैं कि आज यहाँ हम एशिया के हृदय में ही नहीं बल्कि भारत के दिल की गहराई और केन्द्र में खड़े हैं। यहाँ एशिया की एकता का अविनाशी वचन के लिए एकत्रित हुए है जिससे कि विध्वंसों के बीच की दुनिया केा पीड़ा दुःख शोषण कठिनाई गरीबी, अज्ञान, विपत्ति में और मौत से छुड़ाया जा सके।

1949, 2 मार्च को सरोजनी नायडू ने इस संसार से विदा ली और एक कोयल की कूक शांति से सो गई। आज भी सरोजनी नायडू जन्म दिवस ”महिला दिवस“ के रूप में मनाया जाता है। 13 फरवरी 1964 को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में 15 नये पैसे का  एक डाक टिकिट जारी किया ।