Saturday, 26 February 2022

mahrshi Dayanand

 महर्षि दयानन्द महान समाज सुधारक

महर्षि दयानन्द महान समाज सुधारक ,ऐसे वक्त मे अपने विचारों को लेकर खड़े हुए जब देष अंधविष्वासों मे जकड़ा हुआ था। बार बार दासता की जंजीरों की वजह से बहुत सी कुरीतियाॅं व्याप्त थी। कट्टर मानस के व्यक्ति देष को गर्त ओर ले जा रहे थे। ऐसे समय महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म 1824 में फरवरी 12 को कर्षन जी के यहाँ मोरवी राज्य के टंकारा नगर के जीवापुर मुहल्ले में हुआ । उनका मूल नाम मूलषंकर था लेकिन प्यार से उन्हें दयाराम भी कहा जाता था। 

उनकी षिक्षा 5 वर्ष की अवस्था में प्रारम्भ हुई पिता परम षिवभक्त थे। चैदवें वर्ष की आयु में दयाराम को पिता ने षिव जी का व्रत षिव रात्रि को रखने के लिये कहा। षिव रात्रि को उनसे अनुष्ठान कराकर पूजा बिठाई उसमें पुजारी का सोना निषेध होता है। एक चूहा षिवजी की मूर्ति पर चढ़े अक्षत खाने लगा। मूल जी के मस्तिक में झंझावत उठ खड़ा हुआ। षिव तो दुर्दांत दैत्य दलनकारी है। और एक छोटा सा जीव उनके सिर पर विराजमान है वे उसे हटा नही पा रहे। उसने अपने प्रश्न का समाधान पिता से चाहा पर पिता के इस समाधान से संतुष्टि नही मिली कि यह पाषाण मूर्ति पूजा है । यदि पाषाण है तो पूजा कैसी? यहीं से वे मूर्ति पूजा विरोधी हुए । बहन की व अपने चाचा की विसूचिका से मृत्यु से उन्हें वैराग्य हुआ। 22 वर्ष की अवस्था में अपने विवाह की तैयारियाँ होते देख वे घर से भाग गये। श्रंगृवेरी मठ द्वारका जा रहे एक सन्यासी पूर्णानन्द ने इनका नाम दयानंद सरस्वती रखा। तब से वे अनेक स्थानों पर भ्रमण करते ज्ञान प्राप्त करते रहे और सन् 1880 में कार्तिक शुक्ला द्वितीया को वे मथुरा आये वहाँ दण्डी स्वामी विरजानंद से शिक्षा लेने पहुँेेचे। वे आर्ष साहित्य समर्थक थे। वे उन्हें कालजिव्ह और कुलक्कर कहते थे। (कालजिव्ह का अर्थ है जिसकी जिव्हा असत्य का खंडन करे) कुलक्कर का अर्थ है खूंटा ( जो विपक्षी को पराभूत करने में द्वृढ हो) वे वेदों को सत्य मानते थे। 

तीन वर्ष उनके पास अध्ययन कर वे 1863 मेें सेठ गुल्लामल के बाग आगरा में ठहरे। वे जगह जगह प्रवचन करते। अठारह पुराण मूर्ति पूजा शैव शाक्य ,रामानुज सम्प्रदाय तन्त्रग्रन्थ ,काम मार्ग, भाँग, शराब आदि का खंडन करते उन्होंने पहली पाठशाला कासगंज में 1870 में बनाई। कासंगज में एक दिन युद्धरत दो साड़ों को  सींग पकड़ कर इतनी जोर से धक्का दिया कि दोनों का मुँह आकाश की ओर उठ गया। 

1890 में महर्षि अनूपशहर पहुँचे वहाँ एक पंडित ने महर्षि को पान में जहर दिया लेकिन योग की न्यौती किया से महर्षि ने विष को बाहर कर दिया पूरे देश में महर्षि ने व्याख्यान दिये। वे संस्कृत में व्याख्यान देते थे। केशवदेव ने महर्षि कांे हिन्दी में व्याख्यान देने को कहा तबसे दयानन्द हिन्दी में व्याख्यान देने लगे। आर्य समाज की स्थापना चैत्र प्रतिपदा संवत् 1932 सन् 1837 को गिर गाँव में हुई। 

परन्तु ज्यों ज्यों उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई उनके दुश्मन बढ़ते गये। पंडितों आदि को अपना व्यवसाय खतरे में लगा। पूरे जीवन काल में उन्हें 10 बार विष देने का प्रयास किया गया। सन् 1883 मई 28 को अजमेर फिर पाली से जोधपुर पहुँचे जुलाई के अन्त में जोधपुर नन्ही वेश्या के प्रेम को छोड़ने के लिये जोधपुर नरेश को पत्र लिखा। 30 सितम्बर को अथवा 1 अक्टूबर को रात्रि के समय चोलमिश्र के हाथ दूध पीकर जब सो गये तो उदरशूल से जी मिचलाने लगा। तीन बार वमन हुआ। चोलमिश्र अथवा जगन्नाथ पंडित ही था जिसने महर्षि के दूध में जहर दिया था उसे नन्ही वेश्या ने जहर दिया था। पंडित ने जहर तो दे दिया लेकिन पश्चाताप् से भर उठा।महर्षि को ज्ञात हुआ जो उन्होंने  उसे रूपये देकर तत्काल नेपाल निकाल जाने के लिये कहा। ‘मैं किसी को कैद कराने नही आया संसार मात्र को मुक्त कराना मेरा कर्तव्य है।’ 30 अक्टूबर दीपावली के दिन संध्या 6 बजे 

  महर्षि दयानन्द ने जाति को कर्म से बांधा जन्म से नहीं उन्होंने  ईश्वर को सृष्टि का निमित्त एवम् प्रकृति को अनादि शाश्वत माना। राष्ट्रीय जागरण समाजिक पुनरुत्थान में स्त्रियों की भागीदारी करने के पक्ष में थे। 

महर्षि दयानन्द महान समाज सुधारक ही नहीं थे। उन्होंने स्वराज्य की प्रथम जोत जलाई। वे ही थे जो पराधीन भारत में यह कहने का साहस कर सके कि आर्यावर्त ( भारत ) भारतीयों का है। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के सूत्रधार भी दयानंद सरस्वती थे । 1857 की क्रान्ति की संपूर्ण योजना भी स्वामी जी के नेतृत्व में तैयार की गई थी। 1855 को हरिद्वार में एकान्त स्थान पर उन्होने अजीमुल्ला, नाना साहेब, बाला साहिब, तात्या टोपे तथा बाबू कंुवर सिंह से मुलाकात की और देश की आजादी के लिये योजना तैयार की। 

1857 की क्रान्ति की असफलता पर दयानन्द सरस्वती ने हतोत्साहित क्रान्तिकारियों में अपने इस कथन से प्राण फूंक दिया‘ स्वतन्त्रता संघर्ष कभी असफल नहीं होता । भारत धीरे धीरे एक सौ वर्ष में परतन्त्र बना है। अब इसकी स्वतन्त्रता प्राप्ति में बहुत से अनमोल प्राणियों की आहुतियां डाली जायेगी। अनेको ग्रंथ लिखे सत्यार्थ प्रकाश प्रमुख ग्रंथ है। 

दयानन्द सरस्वती महान समाज सुधारक योगी दार्शनिक पाखंड विरोधी भारत को एक महान देश बनाने उसका कायाकल्प करने की भावनाओं से ओतप्रोत थे । 







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