Tuesday 8 March 2022

mahila sashakti karan

 महिला सशक्तीकरण 


एक पिंजरे  में कैद  चिडिया और आसमान में उडान भरती चिडिया के स्वभाव में खासा अंतर हेाता है। पिंजरे में कैद चिडिया संुन्दर भले ही हो मगर वह चहचहाती नहीं है। झालक जाती है आॅखे में समाई मजबूरी सहमेपन का सा भाव जबकि आसमान में उडान भरती चिडिया की आॅखों में झलकती है आत्मविश्वास की चमक ।,वह दिल खोलकर चहचहाती है। उसमें चुनोंतियो से जूझने का हौसला भी पैदा होता है। यही हौसला महिला में शक्ति पैदा करता है। उसे कभी कल्पना चावला तो कभी इंदिरा नुेहरू तो कभी किरण बेदी बनाता है। वह पूरे दम खम से संघर्षरत है। वह अपने चारो ओर बंधी अर्गला को काटकर अपनी अलग पहचान बनाने में सफल हुई है। वह पायलट बनकर देश की आर्थिक प्रगति में भागीदार बनती है। राजनेता बनकर देश की नीतियांे और विकास कार्य में अपना पक्ष रखती है। घर और बाहर दोनों का भार बखूबी निभाती है, आज की नारी अपने आस्तित्व को पहचानने की पहल कर रही हेै अपने अधिकारों के लिये सजग है। प्रंेम  जबतक आकर्षण के रूप में है तब तक प्रेमी प्रेमिका दोनों मालिक होते हैं विवाह में परिवर्तित होते ही मालिक नौकर का भाव आ जाता है और नारी नौकर होने का सुख भोगती है उसमें ही मस्त रहती है पर जहाॅं जरा सा मलिक बनने की ओर कदम बढ़ाना चाहती है या हक की बात करती है तो झगड़ा होने लगता है। तब प्रेम युद्ध की स्थिति पैदा कर देता है सन् 1960 के दशक में महिला सशक्तीकरण एक मुद्दा एक विचार बना । यह आंदोलन  भारत ही में नहीं विश्व में फैला । अर्थात  नारी पुरुषों के समान किसी भी देश में सक्षम और सशक्त नहीं है। उसे दोयम दर्जो का स्थान मिला हुआ है । विश्व भर में अनेक योजनाऐं महिला सशक्तीकरण के लिये चलाई गयी हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने तो एक पृथक कार्यक्रम चलाया हेै।

 यद्यपि अभी भी शारीरिक हिंसा और उत्पीडन की शिकार हैं लकिन अब सामाजिक न्याय और आर्थिक संबलता की ओर कदम बढ़ा कर गरीब अनपढ और पिछडें समाज की महिलाएॅं जो अधिक उत्पीडन का शिकार होती हैं, अब अन्याय के खिलाफ उठकर खडी हो गई हेैं वे अपना हक मांग रही हैं। उसके लिये हर चुनौती का सामना कर रही है। उदाहरण है बुदेलाखंड की पांच सौ औरतों का गुलाबी गिरोह। एक अर्धशिक्षित महिला संपतदेवी द्वारा संगठित यह गिरोह है। सरकारी महकमे में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खडा हुआ है। इस गिरोह की सबसे बडी उपलब्धि-,, राशन काला बाजार में जाने से रोकना है। संपत देवी  का कहना हेै देश आसानी सें तो आजाद हुआ नही हैं अरे जान एक बार जायेगी दस खलनायक हमें परेशान करे क्या ? पूरा बुदेलखण्ड हमारे साथ हेै। देश के कई राज्यों में महिलाओं ने स्वशक्ति स्वयं सहायता समूह बना लिये हैं इसने आर्थिक आत्मानिर्मरता के क्षेत्र में क्रंाति लादी है।विश्व महिला दिवस की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने 1975 में की थी, लेकिन इसका आरम्भ बहुत पहले ही हो गया था। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ मंे ही महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति सजगता आ गई थी । यूरोप में बदलाव आ रहा था। 1911 मंे काोपेनहेग जर्मनी मंे सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की क्लारा जेटिकन ने विश्व महिला दिवस का विचार रखा और 19 मार्च को यूरोप के बहुत से देशों में पहली बार विश्व महिला दिवस का आयोजन हुआ। इसमें 10 लाख से ज्यादा महिलाओं और पुरुषों ने भाग लिया । यह दिवस महिलाओं के ही नहीं  एक तरह से सभी के लिये सामाजिक न्याय व  समानता की आवाज उठाता रहा। अमेरिका मंे भी अपने अधिकारों के प्रति चेतना जाग्रत हो रही थी । 1908 मंे करीब 1500 महिलाओ ने सड़क पर आकर पहली बार यह आवाज उठाई कि उन्हें वोट का अधिकार मिले । 28 फरवरी 1909 को वहाॅ महिलाओं ने अपना पहला महिला दिवस मनाया और यह सिलसिला 1913 तक चलता रहा यूरोप मंे 1913 में विश्व महिला दिवस की तिथि 8 मार्च तय की गई और इसी तारीख को बाद में संयुक्त राष्ट्र की मान्यता मिली। इस एक शताब्दी का सफर महिलाओं के लिये आगे और आग जाने तमाम उपलब्धियों का सफर है।


 जम्मू कश्मीर की महिलाओं ने अतंकवादियों के खिलाफ स्वयं हथियार उठा लिये हैं। अवामी नामक इस संगठन की महिआएॅं कहती हैं अपने ऊपर अत्याचार कराने से अच्छा मरना, मारना सीख लें। उत्तरांचल झारख्ंाण्ड मध्य प्रदेश मेें महिलाआंे द्वारा शराब विरोधी अंदोलन चलाये गये । आदमियांे की शराब खोरी की वजह से महिलाओं को जो उत्पीडन सहना पडता है, उसके खिलाफ लामबंदी कर हजारों लीटर शराब नष्ट कर दुकाने बंद कराई । यहाॅ महिलाओ ने अपनी शक्ति का उपयोग संगठित होकर किया अपने को कमजोर नही माना । एकता  में संगठन में बहुत शवित हैं जो कमी प्राकृतिक रूप से महिला  मंे है कि वह निर्बल रह जाती हैं अबला नही ,शारीरिक रूप से उसमें पुरुष का सामना करने की शाक्ति नही है तो उसे संगठित होकर पूरा किया जा सकता हेै । अरब देश की महिलाण्ें भी पुरुष सत्तात्मकता के खिलाफ उठ खड़ी हुई हैं। इसके लिये उन्होंने भीषण यातनायें सहीं । प्रताड़ना यौन उत्पीड़न आदि सहन किया। उनका कहना है पितृसत्तात्मक व्यवस्था के हटे बिना आजादी मुमकिन नहीं । इसके लिये उन्होंने जगह जगह प्रदर्शन कर कुछ कानून अपने हित में कराये ।

जहा तक अधिकारों की बात है, अधिकार लडकर नही प्राप्त किये जा सकते हैं महिलाओं को भी पूरे अधिकार प्राप्त हेैं पर क्या महिलाएं अपने हर अधिकार के लिये कानून का दरवाजा खटखटायेगी। क्योकि शोषण महिलाओं का हर कदम पर है और कारण हैं वह अपने को आश्रित मानती हेै। आर्थिक स्वतन्त्रता इतना आत्म विश्वास दे देती हैं कि वह अपने अधिकार अपने आप जान  जाती हेै।

 कुछ अधिकार ऐसे हैं जिन्हे माॅ को बच्ची को देने होंगे । स्वयं ही जब अपने को सीमित कर लेगी तो कैसे वह अपनी बच्ची को इस योग्य बनायेगी कि वह पुरुषेां के साथ कदम से कदम मिला कर चल सके। आर्थिक स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक नहीं कि काम काजी ही हो  जो कामकाजी महिलाएॅ दोहरी जिंदगी जी कर और भी पिसती ंहैं आर्थिक स्वतन्त्रता मिलती है, पर परिवार छिन जाता है। जहा एकल परिवार है वह्राॅ महिला नौकरी कर लेती हैं पर जब बच्चे होते हैं तब समस्या रहती है, तब परिवार की इच्छा होती है।वह चाहती है कि कोई बच्चे को संभाले तब वह नौकरी करे। घरेलू महिलाएॅं कम उपयोगी नहीं होती हैं। वह परिवार का पालन पोषण बच्चों की शिक्षा दीक्षा का पूरा भार वहन करती हैं ऐसे में उसे आर्थिक स्वतन्त्रता रहनी चाहिये। विवाह के साथ ही यह निश्चय रहना चाहिये कि यंिद परिवार चलाने की जिम्मेदारी उसकी है तो अर्थ की देख भाल भी उसकी जिम्मेदारी है। एक विश्वास ,एक आत्म विश्वास पैदा होगा और स्वतन्त्र निर्णय मी तब ही ले पायेगी बस दृढता होती चाहिये अपने आस्तित्व की लडाई, के लिये अपने को अंदर से मजबूत करना चाहिये। भारत की महिलाओं के सामने बहुत सी चुनौतियाॅं हैं । यद्यपि कदम दर कदम हर चुनौती का जबाव देती नारी आगे और आगे बढ़ती जा रही है । कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहाॅं नारी पुरुष से पीछे है। साड़ी कपड़ा जेवर चैके चुल्हे से कहीं ऊपर उसे दुनिया नजर आने लगी हैं 

नारी में अदम्य शक्ति है वह जो मन में ठान लेती है पूरा ही करके मानती है । देश की प्रगति समाज की प्रगति महिलाओं की प्रगति पर निर्भर है । महिला समाज की निर्माता हैं ।महिलाऐं  पुरुष की भाग्य रेखा हैं। समाज की राष्ट्र की घुरी हैं महिलाऐं । दूसरों की दया या मेहरबानी की ओर देखना  यही स्त्री को कमजोर बनाता है। स्त्री अपने हाथ में महिला दिवस का झुनझुना पाकर उसे खुशी खुशी बजाती है पर क्या यह स्वर्य महिलाओं के लिये सार्थक प्रयास है। एक दिन क्यों 365 दिन महिलाओ के है और हर दिन को अपना दिन मानकर अपने को मजबूत किया जा सकता है। तब ही महिला सशक्तीकरण सार्थक होगा नही तो ऐसे ही महिला रिरियाती रहेगी अपने अधिकार मांगती  रहेगी मांगने वाला तो हमेशा दोयम होता है। तो दोयम क्यों बने, दाता हैं जन्मदाता, जीवन दाता आगे भी दाता ही बने। महिलाओं को यदि अपना अधिकार लेना है तो दूसरी महिलाओं को अधिकार देेने होंगे । अपनी इज्जत कराने के लिये दूसरी महिलाओं को भी स्थान देना होगा तभी पुरुष वर्चस्व में सेंध लगेगी । 

डा॰ शशि गोयल                         

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