महाकैलाष की भॉंति ही भू कैलाष है लेकिन लघुरूप है । यह धाम भी अनन्त अगोचर है । यह साधारण व्यक्ति के लिये तो अगम्य है ही लेकिन आजतक इस पर किसी के पैर नहीं पड़े हैं । कैलाष असामान्य पर्वत है । सभी हिम षिखरों से भिन्न और दिव्य ।
पूरे कैलाष की आकृति एक विराट षिवलिंग जैसी है जो पर्वतों से बने ष्षोडश दल कमल के मध्य रखा है । इन कमलाकार षिखर वाले पर्वतों की रचना भी ऐसी लगता है वे षिव लिेग को अर्ध्य दे रहे हों । चौदह षिखर तो स्प्षट परिलक्षित होते हैं दो षिखर और आगे झुके प्रतीत होते हैं उनमें से एक गुरला मांधाता जैसे अर्ध्य देने के बर्तन की नली हो । वहीं से कैलाष से जल निकलकर गौरी कुॅड में जाता है । कैलाष पर्वत आसपास के सभी षिखरों से ऊॅंचा है । यह कसौटी के ठोस काले पत्थर का है जब कि और अन्य सभी पर्वत षिखर कच्चे लाल मटमैले पत्थर के हैं । ध्यान से देखने पर कैलाष के षिखर पर चारों कोनों में ऐसी मन्दिराकृति प्राकृतिक रूप से बनी है जैसे बहुत से मन्दिर षिखरों पर चारों ओर से बनी होती है ।
सन् 1982 में ष्श्वसुर साहब इस यात्रा पर गये थे तीन वर्ष पूवै ही यह यात्रा चीन सरकार से हुए समझौते में चीन की देखरेख में खुली थी यह यात्रा पैदल व खच्चरों से की जाती थी । कड़े मैडीकल चैकअप के साथ पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति को ही इसकी अनुमति मिलती थी तीस दिन की यात्रा में बीस दिन पैदल मार्ग तय करना होता था। सामान खच्चर पर लाद कर ले जाया जाता था लेकिन तब जो सौन्दर्यानुभूति उन्होंने पाई वह हम नेपाल होकर लैंड क्रूजर गाड़ियों से नहीं पा सके । उनका रास्ता अदभुत था । झरने नदी नाले हरियाली ऊॅंचे नीचे रास्ते ,पगडंडियॉं एक तरफ पर्वत षिखर दसरी तरफ
खाई उन पर बिलकुल किनारे किनारे चलते खच्चर । उस समय यात्रा अंतिम यात्रा मानी जाती थी एक तरह से घर से विदा ली जाती थी यद्यपि लौट कर सकुषल ही सब आते थे लेकिन बहुत को रास्ते से तब भी वापस आना पड़ता था ।
ष्श्वसुर जी की यात्रा निर्विघ्न समाप्त हुई और साथ लाये रोमांचक यात्रा के अनुभवों की पिटारी । तब मात्र तीस यात्रियों का दल पहली बार सरकार ने भेजा। दूसरी बार दो दल तीसरे साल दो दल अर्थात मात्र 120 यात्री ही उस स्थान पर जा पाये थे । बहुत बड़ी उपलब्धि थी । महिनों तक उस यात्रा विवरण को टुकड़ियों में सुना । पिघलती चॉंदी ,बरसता स्वर्ण चॉदनी में इतनी तीव्रता कि धूप का चष्मा लगाना पड़ा था वह भी कोरों से बंद । यद्यपि आर्यसमाजी मत के मानने वाले लेकिन एकाएक सुन्दर सी छोटी कन्या को देखना जो देखते ही देखते अदृष्य होगई । मान सरोवर के ऊपर बादलों में ओम की आकृति बनना कुछ चित्र अनुपम थाती के रूप में खींच कर लाये थे तो लगा बाबूजी तो साक्षात षिव से मॉं जगदम्बा से मिल कर आये हैं क्या हमकभी ऐसा सौभाग्य प्राप्त कर सकेंगे
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