Monday, 11 August 2025

Kailash mansarover yatra 24

 कैलाष ष्शैल षिखरं प्रतिकम्पायमानं

कैलाष सषषर््ङग दषाननेन,

 यः पादपद्यपरिवादन मादधान-

स्तं ष्शंकरं ष्शरणदं ष्शरण व्रजामि ।

 कैलाष पर्वत के षिखर के समान ऊॅंेचे ष्शरीर वाले दषमुख रावण के द्वारा हिलायी जाती हुई कैलाष गिरि की चोटी को जिन्होंने अपने कर कमलों से ताल देकर स्थिर कर दिया, उन शरणदाता भगवान् श्री शंकर की मैं ष्शरण लेता हॅूं ।

 राक्षस ताल के पानी में सीसे की मात्रा अधिक है वहॉं की मिट्टी भी भारी है । कैलाष जल यहीं राक्षस ताल में आता है गुरला मांधाता का जल मान सरोवर में जाता है ।

हम अपने अगले पड़ाव की ओर बढ़ रहे थे  दारचेन में गैस्ट हाउस में हमने सामान रखा और फिर सब गाड़ियों में बैठकर अष्टपाद और नंदी पर्वत के दर्षन हेतु चल दिये  । दारचेन से आठ किलोमीटर दूर अष्टपाद वह स्थान है जहॉं प्रथम जैन तीर्थंकर )श्ऋषभ देव ने तपस्या की और ज्ञान प्राप्त किया और यहीं पर निर्वाण प्राप्त किया । अष्टपाद कैलाष षिखर के पास ही स्थित है कैलाष के  एक ओर नंदी पर्वत है  और एक ओर अष्टपाद । जिस समय हम अष्टपाद के लिये चले हमें यही ज्ञात था कि हम ़.ऋषभ देव की निर्वाण स्थली देखने जा रहे हैं  करीब डेढ़ किलोमीटर की चढ़ाई थी । अष्टपाद चौकोर सा पर्वत है।अष्टपाद के पास से झरना नीचे गिर रहा था उसने गिरकर नदी का रूप ले लिया था अष्टपाद पर कहीं कहीं वर्फ जमी हुई थी । रास्ते में छोटे बड़े षिला खंडों को एक दूसरे पर जमाया हुआ था तिब्बती लोगों की मान्यता है कि पत्थरों को आकार देकर वे ईष्वर से सुख शान्ति की  प्रार्थना करते हैं । कोई कोई आकृति चारपॉंच फुट ऊची तक थी ।

तरह तरह का आकार दिया गया था  गुजरिया का स्वरूप तो कोई सैनिक सा ,कोई ऐसा लग रहा था बंदर बैठा हुआ है । हैट पहने अंग्रेज साहब,सिर पर मटकी लिये  पनिहारिन कहीं  सिर पर कपड़ा बांधे लग रहा था हल उठाये किसान चलाआ रहा है वैसे अधिकतर स्तूप का सा स्वरूप लिये हुए थे ।

आधाकिलोमीटर तक की चढ़ाई में मुझे परेषानी नहीं आई फिर मुष्किल पड़ने लगी धीरे धीरे सॉंस फूलने की प्रक्रिया बढ़ने लगी । मैं वहीं नदी किनारे चट्टानों पर बैठ गई ।नदी का स्वरूप जैसे नमन कर रहा हो  घनघोर बादल छा रहे थे बीच बीच में बड़ी बड़ी बूॅंदे टपक जाती । धीरे धीरे बादल सरकने लगे सामने एक उज्वल हिमषिखर चमकने लगा जो कुछ बादलों के पर्दे के पीछे से बाहर आया वह अदभुत् था । वह कैलाष था इतने पास जो ऊपर चढ़ रहे हैं वे तो लग रहा था उसे छू ही लेंगे ।  देखने में पास था  लेकिन दस किलो मीटर की दूरी थी ।एक एक कर सारे बादल छॅंट गये । हॉं एक काला बादल द्वितीया के  चॉंद  के समान षिखर पर ऐसा छाया  कि षिखर ऊपर से  गोलाकार चमकने लगा । सूर्य के प्रकाष में उसमें अदभुत् चमक आ गई थी  बायीं तरफ नीचे सूर्य की किरण एक स्थान पर ऐसे पड़ रही थी करीब दो फुट वृताकार का सितारा चमक उठा यह तो नीचे से दिख रहा था वह स्थान मॉं  पार्वती का माना जाता है। इस मैं भोलेबाबा की कृत्य कृत्य हॅूं जो उन्न्होंने दर्षन दिये । बहुत देर तक उस अदभुत् दर्षन को आत्मसात करती रही । काला बादल सरक गया । पूर्ण षिखर फिर सामने था । बहुत देर तक सितारा चमकता रहा फिर धुंध में खो गया कुछ बॅूंदें फिर पड़ने लगीं। ऊपर पहुॅंच कर गोयल साहब व अन्य ने अष्टपाद की परिक्रमा की उसके अंदर गुफा बनी थी वहॉं जाकर देखा ।उस गुफा में बड़े बड़े कमरे  से बने हैं । वर्फ अंदर दीवारों छत पर लटक 

रही थी एक खंभे पर एक आकृति वर्फ से बनी हुई थी । पानी बहकर लम्बी लम्बी वर्फ की नोक सी लटक रही थी उस पर चेहरे की आकृति स्पष्ट दिख रही थी जैन धमर््ा में माना जाता है यह आकृति .ऋषभ देव की है 


No comments:

Post a Comment