Saturday, 23 August 2025

Amritsar Sifli da ghar

 अमृतसर, सिफली - दा घर, जहॉं परमेश्वर की कृपा बरसती है। गुरूग्रन्थ साहब में अमृतसर को परम पवित्र धर्मस्थल माना गया है। इस शहर का इतिहास बहुत साल पुराना है।  इसकी स्थापना 1579 में हुई थी । इसके आस्तित्व में आने का इतिहास गुरुनानक देव से प्रारम्भ होता है। कहते हैं एक बार गुरु नानक मरदाना के साथ यात्रा पर जा रहे थे। एक रमणीक   स्थान देखकर नानक देव रुक गये। उस स्थान पर उन्होंने विश्राम करते हुए कहा कि इस स्थान पर रमणीक सरोवर होगा जिसका जल अमृत के समान होगा। कालान्तर में 1570 में तृतीय गुरु अमरदास को सम्राट अकबर ने नये नगर हेतु जमीन प्रदान की। कहा जाता है गॉंव वालों ने भी गुरु अमर दास को अपनी जमीन प्रदान की। आज भी पुराना शहर चारों ओर से एक दीवार से धिरा है और इसके बीस प्रवेश द्वार हैं । जो भी हो इसकी स्थापना तृतीय गुरू अमरदास द्वारा हुई। स्थापना के समय  कार सेवा के लिये आई बीबी रजनी व उनके कोढ़ग्रस्त पति एक जलाशय में नहाया करते थे। कुछ दिन में देखा कि कोढ़ग्रस्त पति का कोढ़ धीरे धीरे ठीक हो गया तो सब आश्चर्य चकित रह गये। गुरू अमरदास ने कहा,‘अवश्य यह जलाशय चमत्कारी है’। उन्हंे गुरु नानक की वाणी का पता था उन्हें लगा यही वह स्थान है जिसके विषय में नानक देव ने कहा था। उन्होंने वहॉं विशाल सरोवर का निर्माण कराया। बीच में एक चबूतरा बनवाया जहॉं बैठ कर वे प्रवचन किया करते थे। उस चबूतरे पर बैठकर श्रद्धालु बड़े मनोयोग से गुरूवाणी सुनते। उस सरोवर को लोग अमृत सरोवर कहने लगे। उसी के नाम पर नगर का नाम भी अमृतसर पड़ गया ।

1588 में गुरू अर्जुन देव ने उस चबूतरे पर एक  मंदिर का निर्माण प्रारम्भ कराया। इसे नाम दिया गया हरमंदिर साहब । ईंट गारे से निर्मित एक साधारण संरचना थी इस पर सोने की परत नहीं चढ़ी थी । उसमें गुरूग्रन्थ साहिब की स्थापना की गई। 18वीं शताब्दी में यह तीन बार आक्रान्ताओं के क्रोध का शिकार हुआ। 1757,1762 और 1765 में तीन बार इसे तहस नहस किया गया। लेकिन सिख श्रद्धालुओं ने हिम्मत न हारकर बार बार इसे बनवाया। वर्तमान स्वरूप महाराजा रणजीत सिंह जी के द्वारा दिया गया। 1803 में पंजाब के शासक रणजीत सिंह ने मुख्य 

गुम्बद पर  कांस्य चादर चढ़वाई फिर उसे सोने के पत्तर से ढकवाया।धीरे धीरे श्रद्धालुओं द्वारा उस पर स्वर्ण की पर्तें चढ़वाई जाने लगीं। एक अनुमान के अनुसार इस मंदिर में लगा सोना लगभग 400 किलो तक था । देश विदेश के श्रद्धालु अपनी मन्नत पूरी होने पर इसमें स्वर्ण का काम करवाते हैं । निरंतर इसकी सुनहली आभा बढ़ती जा रही है । करीब 1600 किलोग्राम से भी अधिक सोना इस मंदिर में  लग चुका था । 1995 से 1999 के बीच बर्मिघम के दो सिख संगठनों ने मुख्य गर्भगृह पर पूरी तरह से फिर से सोने का आवरण चढ़वाया  अब 160 किलोग्रम सोने से मंदिर के चार प्रवेशद्वारों पर बने गुंबदों को भी उसी तरह मढ़ा जा रहा है जैसे मंदिर के मुख्य गर्भगग्रह पवित्र हर मिंदर साहिब की छत मढ़ी है ।  उसी तरह अैार भी निरंतर निर्माण जारी है । अब पूरे विश्व में अमृतसर  के नाम से शहर जाना जाता है और सरोवर का स्थान स्वर्ण मंदिर।

स्वर्ण मंदिर में प्रवेश के साथ ही ऐसा लगता है साक्षात गुरूवाणी गुरू के मुॅंह से सुनी जा रही हो। प्रतिदिन इसका स्वरूप सुन्दर से सुन्दरतम होता जा रहा है। दूर से ही श्वेत और स्वर्णिम आभा पूरी कलात्मकता से मोह लेती है।

विशाल फाटक में बाहर ही जूते चप्पल का स्थान बना है पानी की धाराओं के  बीच पैरों को धोते हुए मुख्य द्वार से अंदर घुसते ही दिखता है सरोवर का स्वच्छ नीला जल। ऊपर ही विशाल घड़ी लगी है। सीढ़ियॉं उतरकर सबसे पहले पवित्र सरोवर के जल को हाथ में लेकर नेत्रों से लगाया। बंद आंखों के आगे स्वाभाविक रूप से एक तेजस्वी पवित्र चेहरा आ गया जिसे मन ही मन नमन कर आगे देखा। सामने ही स्वर्ण मंदिर था ऐसा लग रहा था संगमरमर की सीपी में स्वर्णिम मोती रखा हो,मुख्य मंदिर हरमिंदर साहब सरोवर के मध्य स्थित है । प्रारम्भ होता है परिक्रमामार्ग ,जिसपर लोगों के पैर न जलें इसके लिये कालीन की पट्टियॉं बिछा दी गई हैं उसी मार्ग के  बांये हाथ पर अनेक छोटे बड़े भवन स्थित हैं । हम अभी चारो ओर देख ही रहे थे कि एक सरदारनीजी आकर हम सबके सिर ढका गयीं  साथ ही ताकीद कर गयीं  मंदिर में जब तक हैें सिर पर से कपड़ा नहीं हटना चाहिये न मुख्य मंदिर की ओर पीठ करना। साड़ी का पल्लू  अब था कि वह बार बार  ढलक जाता और कोई न कोई आकर टोक देता  ‘सिर ढक लो  हारकर कसकर कान पर लपेट लिया। बायें कोने पर पानी का स्थल जहॉं कटोरों में पीने के लिये  शीतल जल तेजी से वितरित हो रहा था उतनी ही तेजी से कुछ कार सेवक स्वेच्छा से उन कटोरों को धोने में लगे थे। यह देखकर बहुत अच्छा लग रहा था कि सिख दर्शनार्थी कार सेवा करना धर्म समझते हैं यह नहीं कि सारा कार्य मंदिर के कार्यकर्ताओं की ही जिम्मेदारी है। छोटे बड़े , धनी निर्धन का वहॉं कोई फर्क नहीं था। 


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