बारह बजे के करीब अपने दल के यात्री दिखने प्रारम्भ हुए एक एक कर सब आते गये सबसे पहले गोयल साहब व अमेरिका के बर्मन दिखाई दिये सौ मीटर का पहाड़ी रास्ता तीन घुमावदार मोड़ और प्रतीक्षा रत हम लोग दल के अंतिम यात्री तक आते आते एक घंटा लगा । सबसे बुजुर्ग भी घोड़े पर आराम से चलते हुए आ गये।हम सब अपनी अपनी कार में सवार बाकी आधी मानसरोवर की यात्रा के लिये प्रयांग की ओर बढ़ लिये ।
मान सरोवर का विस्तृत फैलाव, राक्षस ताल की भुजाऐं और बार बार लुकता छिपता कैलाष देखते करीब छः बजे प्रयांग पहुॅंचे वहॉं एक अदभुत् नजारा हमारा इंतजार कर रहा था । समानान्तर दूरी पर दो दो विषाल इंद्रधनुष अपनी छटा बिखेर रहे थे। प्रयांग का रास्ता धूल भरा मैदानी सा है पास के पहाड़ ष्शुष्क बिना हरियाली व बिना आबादी के उसमें उगा यह गैस्टहाउस रेगिस्तान में नखलिस्तान सा लगा उस पर हल्की धूप हल्के बादल हल्की छिटपुट बारिश और दो दो इंद्रधनुष मानो इंद्र और कामदेव दोनों अपने धनुष ताने खड़े हों पीछे से उभरी पहाड़ियॉं। पहाड़ियों के पीछे श्वेत धवल बादल स्वयं में षिखर लग रहे थे । ष्शीघ्र ही अंधियारी ने सितारे टंगा ऑचल फैला दिया । सारी रात सितारों और बादलों का लुका छिपी का खेल चलता रहा बिजली वहॉं दस बजे तक रही लेकिन चतुर्थी का चॉंद अपनी रोषनी बिखेर रहा था इसलिये बिजली की कमी अधिक अखरी नहीं ।
प्रातः प्रयॉंग से चलने लगे तो बहुत अधूरापन लग रहा था गाड़ी में बैठ तो गये पर ऐहसास था कुछ रह गया आखिरी बार कैलाष की ओर मुॅह कर नमन किया ।पर्वतों के ऊॅंचे षिखरों को देखा यद्यपि मान सरोवर के ऊपर तारों के रूप में ऋषियों को देखा यह सौभाग्य कम नहीं था बिना किसी बिघ्न बाधाके यहॉं तक की यात्रा पूरी हो गई लेकिन फिर भी मनमें कसक थी कि कई ऐसे लोग मिले जिन्होंने किसी न किसी रूप में भोले बाबा के दर्षन किये या मॉं जगदम्बा से साक्षात्कार हुआ। किसी न किसी रूप में चमत्कारिक अनुभव हुए थे हमें क्यों नहीं हुआ सोचते हुए पर्वत षिखरों की ओर नजर घुमाई साथ ही हृदय स्तब्ध रह गया एक विषाल पर्वत की चोटी हलकी नीली होगई और चट्टान पर षिव के ऊर्ध भाग का अक्स उभर आया सब कुछ नील वर्णी एक एक अंग स्पष्ट ऑंख कान नाक तीसरा नेत्र सिर पर जटा, गले में सर्प विष्वास ही नहीं हुआ । मैंने गोयल साहब से कहा ‘देखो देखो पर्वत श्रंखला के बीच में देखो ’ इधर उधर देखकर बोले ‘हॉं अच्छा दृष्य है। ’
‘नहीं उस पर्वत पर देखो साक्षात षिव स्वरूप उभरा हुआ है विषाल षिव ’कहते हुए नमन किया ।
‘ऐसा कुछ नहीं है तुम्हारे मन ने देखा है पहाड़ यहॉं के सुंदर है दूर पर वर्फ से ढके दिख रहे हैं । मैं चुप होगई और षिव अक्स को देखती रही फिर किसी से नहीं कहा क्योंकि मखौल उड़ने का डर लगा मन ही मन प्रभु की अनुकंपा से स्तंम्भित थी । ईष्वरीय सत्ता को मैं बार बार नमन करती हॅूं शक्ति है और रहेगी लेकिन वास्तव में उसका क्या रूप है क्या रंग है कोई नहीं कह सकता षिव का यही स्वरूप रचा बसा है तो संभवतः मन ने गढ़ लिया ‘लगे रहो मुन्ना भाई का किरदार याद आ गया संभवतः यह भी एक भ्रम है जो मेरी अंतरात्मा ने गढ़ लिया
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