मैं माटी का नन्हा दीपक
मैं माटी का नन्हा दीपक
चैराहे पर जला रात भर
चंदा तारे उडगन चमके
मैं ठंडी में गला रात भर,
तेज हवाऐं घूम घूमतीं
मेरा आस्तित्व मिटाने को ,
लेकिन जब तक नेह भरा है,
बुझा नहीं वह पायेगी
जल जाऊं या बुझ जाऊं
अंतर नहीं अर्थ में है
अंत है केवल रोषन कर जग
गल गल कर है मिट जाना
जल जाऊं या मिट जाऊं
माटी में मैं मिल जाउंगा
फिर माटी से नया दीप बन
दीप से दीप जलाउंगा।
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