Tuesday, 7 January 2025

astha parv Mahakumbh

 आस्थापर्व महा कुंभ

कुंभ मेला हिन्दुओं का सबसे अधिक दिन चलने वाला सबसे बड़ा मेला है। यह आस्था पर्व है अमृत की खोज। अमृत स्नान, एक महायज्ञ ,यह भारतीय संस्कृति का प्रतीक है जो एक अभिलाषा का संधान है, जिसके लिये एक स्थान पर सबसे बड़ा मानव समागम होता है । हर वर्ग ,हर वर्ण के लिये समान श्रद्धा का संगम है। हर व्यक्ति को अमृत संधान का हक है इस मेले को देखकर लगता है कि यह विराट का एकाकार स्वरूप है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक बार मृत्युलोक में राजाओं  की सभा में दुर्वासा ऋषि को सुगन्धित पुष्पों की माला भेंट की गई। दुर्वासा ऋषि साधु संत थे। इतनी सुगंधित माला उन्होंने सोचा यह तो राजा महाराजाओं के योग्य है। उन्होंने देवराज इन्द्र को वह माला भेंट कर दी। इंद्र ने वह हार  अपने हाथी की सूंड पर पहना दिया। तभी दुर्वासा किसी कार्यवष लौट कर इंद्र के पास आये तो उन्होंने अपने द्वारा दिये हार को हाथी को दिये जाने पर अपमानित अनुभव किया। दुर्वासा तो अपने क्रेाध के लिये प्रसि़द्ध हैं ही ,उनहोंने इन्द्र कोष्षाप दे दिया कि वे अपना तेज खो देंगे ।

देवतागण परेषान हो उठे अपना तेज खोने का अर्थ आस्तित्व की समाप्ति। वे षिवजी के पास आये। षिवजी ने समस्या समाधान विष्णुजी के पास बताया। विष्णु भगवान् ने कहा तेज प्राप्ति का मात्र उपाय अमृत पान है, वह समुद्र के गर्भ में है। समुद्र मंथन अकेले देवताओं के बस में नहीं था ,वैसे भी वे अपनीष्षक्ति खो चुके थे इसलिये उन्हें दानवों से समझौता करना पड़ा। समुद्र मंथन देवता और दानवों की आपसी सहमति से किया गया। समुद्र मंथन से चौदह रत्न निकले। सबसे अंत में धन्वन्तरि अमरत्व पेय का घड़ा लिये अवतरित हुए। देवताओं ने छल से सभी रत्न हस्तगत कर लिये थे अंत में अमृत कुंभ को भी जब देवता स्वयं ही ले लेना चाहते थे । तब देवासुर महासंग्राम हुआ। महासंग्राम के समय असुरों से बचाने के लिये अमृतघट की रक्षा का दायित्व देवराज इंद्र के पुत्र जयंत को सौंप दिया गया था । सूर्य चंद्र वृहस्पति और षनि इस कार्य में जयंत के सहयोगी बने ।

असुर अमृतघट की खोज कर रहे थे जब ज्ञात हुआ कि घट जयंत के पास है तो असुर उसको ढूंढने लगे । जयंत अमृतघट को लेकर भागा । वह बारह स्थानों पर विश्राम के लिये रुका इनमें से चार मृत्युलोक में थे। वे स्थान थे हरिद्वार ,प्रयाग,गोदावरी तट -नासिक और क्षिप्रा का 

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तट- उज्जयनी। अमृतघट को रखने में उन चारों स्थानों पर अमृत की कुछ बूंदें छलक गईं और वे  स्थान कुंभ क्षेत्र बन गये। दुर्वासा ऋषि के ष्षाप से जुड़ा था इसलिये विषेष रूप से धर्म संम्प्रदायों से जुड़ता चला गया। साधु सन्यासी संत मोक्ष की प्राप्ति की आकांक्षा से यहां कल्पवास करने के लिये पहुंचते हैं। श्रद्धा और विष्वास ने साधु सन्यासियों के साथ साथ गृहस्थों को भी आकर्षित किया और आस्था विष्वास का महामेला बन गया । कल्पवास के समय पूर्ण संयम श्रद्धा विष्वास के साथ ईष्वर का स्मरण करते हुए चालीस दिन गंगा के तट पर बिताते हैं, इस समय आहार संयमित होता है। कल्पवास के समय षिविर के बाहर तुलसी का बिरवा लगाते हैं और जौ बोते हैं। विष्वास है कि जौ के पौघे के बढ़ने के साथ उनके घर की सुख समृद्धि का विकास होगा ।

स्कंद पुराण में कहा गया - पृथिव्यंा कुंभ पर्वस्य,    चतुर्थ भेद उच्यते,

                    चतुः स्थले निपतनात्,    सुधा कुम्भस्य भूतले

                    विष्णु द्वारे प्रयागे व अवन्तयां गोदावरी तटे

                    सूर्येन्दु गुरू संयगात      तद्राषो तत्वसरे ’

पुराण में ब्रह्मा जी कहते हैं- चतुरः कुंभाष्चतुर्घा  ददामि

 कुंभराषि पर वृहस्पति का और मेषराषि पर सूर्य का योग होने में हऱिद्वार में कुभ का योग बनता है। सिंह राषि पर वृहस्पति एवम् मेष  राषि पर सूर्य का योग होने  पर उज्जयनी में कुंभ योग बनता है। वृष्चिक राषि पर वृहस्पति का योग होने पर नासिक में कुंभ योग बनता है। माधमास की अमावस्या को वृहस्पति का वृषराषि में संचरण होता है तब प्रयाग में कुंभयोग बनता है । यह स्थिति बारह वर्ष बाद बनती है। चंद्र सूर्य और वृहस्पति कोणात्मक स्थिति में होते हैं तब प्रयाग की पावन पुण्य भूमि पर अमृत वर्षा होती है ।

इनमें स्नान के लिये सूर्य के उत्तरायण होने की विषिट तिथियों को स्नान का योग बनता है वह है मकर संक्रान्ति,मौनी मावस्या बसंत पंचमी । इन तिथियों पर ष्षाही स्नान होता है स्नान की परंपरा छ तिथियों को है मकरसंक्राति ,पौष पूर्णिमा,मौनी अमावस्या,बसंत पंचमी,माघ पूर्णिमा,महाषिवरात्रि।

 ष्षाही स्नान के लिये महामंडलेष्वरों में अनबन होने लगी थी । कभी कभी लड़ाई झगड़े तक की नौबत आ जाती थी। हर पीठ के मठाधीष अपने को श्रेष्ठ कह पहले स्नान करना चाहते थे। तब ब्रिटिष काल में उनके स्नान का क्रम तय हो गया था। सबसे पहले महा निर्वाणी का 

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स्नान तय है , नागा गोसाई,वैष्णव वैरागी संत फिर उदासी और अंत में निर्मल अखाड़ा के संत महंत स्नान करते हैं।

आदि षंकराचार्य ने षैव सम्प्रदाय का गठन किया जिसकी दसष्षाखायें हैं इन षाखाओं में जिन व्यक्तियों को दीक्षित कर नाम दिये गये है उनके नाम के आगे अब वर्तमान दीक्षित संत का नाम लगाया जाता है। इसे योग पट्ट कहते हैं,ये नाम हैं गिरि ,पुरी ,भारती वन अरण्य पर्वत सागर तीर्थ ,आश्रम और सरस्वती । इन्हें दषनाम से संबोधित किया जाता था ।

आदि गुरू षंकराचार्य ने चार मठ या पीठ स्थापित किये ये भारत के चारो कोनों पर थे । गोवर्धन पुरी,द्वारकाष्षारदा पीठ,श्रंगेरी पीठ, और ज्योतिर्मय और हरपीठ पर एक मुख्य षिष्य को नियुक्त किया जिन्हें परमहंस कहा जाता था ,लेकिन 1800 से वे महामंडलेष्वर कहलाये जाने लगे । 

एक बार पार्वती जी ने षिवजी से पूछा क्या वास्तव में संगम स्नान करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है’ षिवजी पार्वती जी की बात सुनकर मुस्कराये और बोले ‘चलो परीक्षा करलें।’

गंगातट पर स्नान करने वालों की भीड़ लगी हुई थी,षिवजी वहीं तट पर षव की तरह लेट गये । देवी पार्वती विलाप करने लगीं। उनके चारों ओर भीड़ इक्कट्ठी हो गई। पार्वती जी भीड़ से कहने लगीं,‘ भगवान् षिव ने उन्हें वरदान दिया है कि ऐसे तीर्थयात्री के स्पर्ष से मेरे पति जीवित हो जायेंगे जो पापी न हो,परंतु यदि पाप जिसने किया हो वह व्यक्ति छुएगा तो वह मर जायेगा । मरने की बात सुनकर भीड़ छंटने लगी लेकिन एक आदमी आगे आया और बोला गंगा पाप मोक्षणी है कोई न कोई पाप तो किया ही होगा,मैं गंगा स्नान कर पाप मुक्त होकर आता हूं, फिर आपके पति को स्पर्ष करूंगा,अवष्य आपके पति जीवित हो जायेंगे। वह गंगा में डुबकी लगा कर आया जैसे ही षव को छूने को हुआ षिवजी अपने असली स्वरूप में प्रगट हुए और उस व्यक्ति को वरदान दिया ।

कुंभ के विषय में सबसे प्राचीन उल्लेख चीन यात्री हवेनसांग के समय का मिलता है जो हर वर्ष सपरिवार आता था और संगम स्नानकर जो कुछ अपने साथ लाता था वह दान कर जाता था। इस मेले का वर्णन विदेषी यात्रियों की पुस्तकों में भी मिलता है। हवेन सांग ने लिखा ,प्रयाग में मेला कड़कड़ाती ठंड में लगा था,मीलों तक गंगा के किनारे तंबुओं का नगर बसा था। ठंड में हिन्दुओं को नहाते देखा देखकर,उनकी दृढ निष्ठा आस्था से मन प्रभावित हो उठता है।1871 में रूस की हेलेना पैट्रोविना ने भारत भ्रमण के समय यह मेला देखा था और उसके विषय में 1812 में प्रकषित पुस्तक ‘फ्राम दी के बस एण्ड जंगल ऑफ हिन्दुस्तान में कुंभ 


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मेले का वर्णन किया है‘ एक अदभुत् मेला देखा, हिन्दुओं की श्रद्धा आस्था और सांस्कृतिक एकता को पास से देखा ।

     एक अन्य चीनी यात्री होई लू पिन ने लिखा,‘हऱिद्वार में एक भव्य मेला देखा वहां अनेक राजा गरीबों को वस्त्र आदि दान कर रहे थे। हजारों लोगों को वस्त्र दान कर रहे थे। वे सोने की मुद्राऐं दान कर रहे थे । कुंभ मेला हिन्दू संस्कृति की आस्था विश्वास और एकता -अखंडता का महान पर्व है ।






डा॰ ष्षषि गोयल


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