एक बेटी का दुःख
मैं कितनी मजबूर हो गई
अपने पन से दूर हो गई
जब तक थी छोटी अबोध मैं
नहीं जानती दुनियादारी
भोला मन था भोली बातें
सबको लगती थी मैं प्यारी
जैसे जैसे बड़ी हो गई
मैं अपनों से दूर हो गई
मैं हंसती तो दूनिया हंसती
मुझमें सबकी दुनिया बसती
उंगली पकड़ पिता की चलते
माँ के आंचल में जा छिपते
जितनी जितनी बड़ी हो गई
मैं ई्रश्वर से दूर हो गई
ईंट ईंट पर छाप पड़ी थी
जिस घर में मैं पली बढ़ी थी
जिस घर की प्यारी गुड़िया थी
देवी थी पावन कन्या थी
उस घर से मैं विदा हो गई
माँ इतना क्यों क्रूर हो गई।
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