Sunday 26 September 2021

 एक बेटी का दुःख




मैं कितनी मजबूर हो गई

अपने पन से दूर हो गई

जब तक थी छोटी अबोध मैं

नहीं जानती दुनियादारी

भोला मन था भोली बातें 

सबको लगती थी मैं प्यारी 

जैसे जैसे बड़ी हो गई

मैं अपनों से दूर हो गई

मैं हंसती तो दूनिया हंसती

मुझमें सबकी दुनिया बसती

उंगली पकड़ पिता की चलते

माँ के आंचल में जा छिपते

जितनी जितनी बड़ी हो गई

मैं ई्रश्वर से दूर हो गई

ईंट ईंट पर छाप पड़ी थी

जिस घर में मैं पली बढ़ी थी

जिस घर की प्यारी गुड़िया थी

देवी थी पावन कन्या थी

उस घर से मैं विदा हो गई

माँ इतना क्यों क्रूर हो गई।





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