☺घोखा देने को जजों द्वारा दी गई मान्यता
वे इस समाज में नहीं रहते क्योंकि वे अपने को दुनिया से ऊपर मानते हैं अकड़े रहते हैं िकवे सुप्रीम कोर्ट के जज हैं उनके निर्णय पर भारत की आत्मा टिकी है परन्तु अधिकतर निर्णय आजकल एकतरफा जातिगत भेदभाव से लिये होते हैं जैसे एक वर्गको प्रसन्न करने के लिये गलत निर्णय देने से भी नहीं हिचकिचाते और विवके से दूर होते हैं,हृदय के पास तो कतई नहीं होते ऐसा लगता है किसी प्रकार के दबाव में निर्णय दे रहे हैं ।
नाम का केस देख लो नाम लिखे जाने से क्या परेशानी क्या हिंदू क्या मुसलमान दोनों पक्ष अपना नाम लिख रहे हैं क्या मुसलमान खना नहीं खाते मुसलमान खरीदारी नहीं करते कभी सुबह के हाट बाजार में जाओ काले बुरके ही बुरके मिलेंगे तो इसमें क्या परेशानी वे भी इंसान हैं उनकी भी आवश्यकतायें हैं वे क्यों नहीं निकलेंगे दोनों पक्ष दोनों प्रकार की दुकानों से सामान खरीदते हैं इसमें कोई परेशानी नहीं परंतु खाना अलग विषय है सादा खाने वाले को मीट की गंध भी सहन नहीं होती अगर उसे पता चल जाय पास में मीट पक रहा था तो शायद कई दिन उसे उल्टी होती रहेगी, क्या किसी को जबर्दस्ती मांसाहार कराया जायेगा। अरे मांसाहार खाने वाले तो हर प्रकार के ढावे पर चले जायेगे लेकिन शाकाहरी व्यक्ति नहीं खा सकता । तो क्यों नाम छिपाने के लिये जज सही ठहरा रहे हैं इस प्रकार तो धोखा देने को स्वयं जज मान्यता दे रहे हैं क्या पेशाब किये खाने को जज खा सकते हैं अगर वे खालें तो मैं उन्हें प्रणाम करुंगी जिन्होंने यह निर्णाय दिया किनाम की आवश्यकता नही ंतो मुलमान के ढावे पर हिन्दू देवी देवताओं के नाम क्यों? नाम मत लिखाइये जिस नाम से लाइसेंस लिया है उसे लिखे जाने में क्या हर्ज कै कि लाइसेंस प्राप्त ढाबा है या नहीं ।खाने की लिस्ट रहनी चाहिये ।
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