Saturday, 28 June 2025

cheen ke ve das din 6

 प्रातःकाल हमें शंघाई के लिये निकलना था। रात्रि को ही अर्चना के रसोई घर में हमने शंघाई के लिये पूरी-सब्जी तैयार की क्योंकि एक दो को छोड़कर सभी पूर्ण शाकाहारी थे। यहाँ तक कि प्याज भी नहीं खाते थे। उनके लिये चीन के होटल, रैस्त्रंा में खाना बहुत मुश्किल था। खाने के पैकेट बना बना  कर रखे गये और सबको देदिये गये। वहॉं हिन्दुस्तानी खाना बनाने के लिये यद्यपि मिलता सब है पर बहुत मुश्किल से। अर्चना की दो प्राणी की गृहस्थी थी इसलिये आवश्यक

सामान सब अपने साथ ले गये थे । इतना एहसास तो था ही कि संभवतःउतना राशन वहॉं न मिल सके विशेष आटा ।और वास्तव में आटे के स्थान पर वहॉं मैदे का उपयोग होता है ।

प्रातःकाल बस से हम शंघाई के लिये रवाना हुए शाउसिंग के लिये शंघाई से आये तब अंधेरा था। लेकिन लौटने में दिन का उजाला था। दूर-दूर तक खुला और हरियाली। पर कहीं ऐसा नहीं लगा कि बहुत व्यस्त शहर है उनकी भाषा में गाँव है। सड़कें एकदम साफ थीं दोनों तरफ विलो वृक्ष तो थे ही अन्य भी बहुत प्रकार के वृक्ष थे। झील, पहाड़ी, फव्वारें आदि सब मार्ग का सौंदर्य बढ़ा रहे थे।

शंघाई पुलों के नीचे बसा है। एक के ऊपर एक फ्लाई ओवर थे जैसे हवा में झूल रहे हों। सात-सात फ्लाई ओवर एक के ऊपर एक थे। नीचे सड़क इधर-उधर बड़ी-बड़ी इमारतें हम उन इमारतों की ऊँचाइयों को देख पा रहे थे। मैट्रो अलग चल रही थी एक तरफ रेलवे  स्टेशन था। रेलवे स्टेशन पर लगा हम चीन में है। दूर तक केवल सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे । किनारे किनारे दोनों तरफ चम्पा के फूल थे। सफेद हलकी पीली आभा लिये खिल रहे थे। स्टेशन से निकल कर एक तरफ सुंदर फूल दूसरी तरफ नदी उस पर छोटे छोटे पुल जिस पर होकर पार जाना था।पतली गलियों को दीवार से घेर दिया गया था ।अंदर पुराने ढंग के घर है। बहुत-सी इमारतों पर सुनहरे शीशे लगे थे। जो सूर्य की रोशनी में सुनहरी आभा बिखेर रहे थे।

शंघाई में लिंगन  होटल में करीब ग्यारह बजे हमारी बस रूकी। होटल की मुख्य इमारत के बाहर अहाते में कृत्रिम पहाड़ी-झरने के रूप में प्राकृतिक दृश्य बनाया गया था परी की मूर्ति से उसे सुंदरता प्रदान की गई थी रिसैप्शन हॉल में बड़े-बड़े पीतल के गमलों में बॉंस के पौधे लगे थे उनकी टहनियों को विभिन्न आकृतियों का रूप दिया गया था। उनसे जाली सी बनाकर बोतल आदि की आकृति दी गई थी। हर गमले में उगे पौधे की कलात्मकता देखकर उनके धैर्य की प्रशंसा करनी पड़ेगी क्यांेकि उन्हें प्रारम्भ से ही आकृति देकर बढ़ाया गया होगा अब वे करीब पाँच-पाँच फुट हो गये थे। 

बड़े-बड़े मछलीघर लगे थे जिनमें रखी करीब दस इंच लंबी लाल मछलियाँ तैर रहीं थीं लाल मछली वहाँ समृ(ि का प्रतीक मानी जाती है इन्हें वहाँ रैड फोर्ड फिश कहा जाता है। चटक लाल रंग की ये मछलियाँ बहुत सुंदर लग रही थी एक-एक दो-दो काली मछलियाँ भी उसमें तैर रही थी। दरवाजे पर चीनी मिट्टी के बड़े-बड़े नीली चित्रकारी के जार रखे थे।

होटल शाउसिंग में भी देखा और लिंगेन में भी समान स्वयं हमें ही उठाना था। उठा-उठाकर लिफ्ट में रखना कमरे में

पहुँचाना सब हम सबने किया। चीन में कहीं भी कोई वेटर यह काम नहीं करता है पूरी यात्रा में सारा सामान स्वयं ही उठाना पड़ा था बस वाला भी बस से नीचे उतार देता था । अंदर होटल में ले जाना या होटल से बस तक भी लाने का काम स्वयं ही करना पड़ता था। वहाँ पर सामान रखने के लिये बस की सीट के नीचे तलघर बना था वहाँ बस की छत पर सामान नहीं रखा जाता  बस में बने छोटे-छोटे केबिन में केवल हैंड बैग रखे जाते थे।ड्रइवर सामान निकाल तो देता था पर जरा सा खिसकाता भी नहीं था ।

सब सामान तीसरी मंजिल पर बने कमरों में पहुँचाया। कमरे सुरुचिपूर्ण सज्जित व सुविधाजनक थे वहाँ पर भी गर्म पानी के थर्मस चाय-काफी के पैकेट आदि रखे थे। चाय बनाने का काम हम चार सहयात्रियों का हर जगह श्रीमती किरन महाजन ने ही किया । हम चारों मैं श्रीमती शैलबाला, डॉ॰ राजकुमारी शर्मा व श्रीमती किरन महाजन का सारा समय एक कमरे में बीतता था केवल सोने के समय अलग होते थे पूरे दिन की प्रक्रिया पर हँसी-मजाक चलता रहता था। समय बहुत ही सुखद बीता। मन चाय का करता था तो हर हालत में श्रीमती किरन महाजन को पकड़कर लाते थे कि चलो चाय बनाने का समय हो गया है। इसी प्रकार यात्रा के दस दिन बहुत ही सुखद और यादगार रहे।

शंघाई की यात्रा में दीपक जी हमारे साथ थे। दोपहर तो हो ही गई थी उस समय अधिक दूरी का कार्यक्रम तो बनाया नहीं जा सकता था इसलिये शहर घूमने की सोची गई एक टैक्सी में वहाँ पाँच लोग बैठ सकते थे हमने तीन टैक्सियॉं की  और शंघाई घूमने के लिये चल पड़े।

शंघाई शहर की स्थापना 5-9 वीं शताब्दी में हुई है। शंघाई दो शब्दों से मिलकर बना है शघ-ऊपर तथा हाई-सागर यह नाम सांग राजवंश शासन काल 11वीं शताब्दी में पहली बार सामने आया तब वहाँ एक नदी तथा एक गाँव इस नाम का था इसका अधिकारिक नाम है समुद्र के ऊपर या समुद्र तट पर बसा।  इसकी भाषा शंघाई ही है । यह चीन का विशालतम नगर है इनका क्षेत्रफल 7037 किमी. है इसकी जनसंख्या 14 करोड़ है। शंघाई कभी स्वतंत्र प्रशासकीय क्षेत्र था। शंघाई ने तरह-तरह की सभ्यता और प्रशासन झेले हैं इस पर अंग्रेज, जापानी आदि काबिज हुए। 1292 में युगं वंश के समय यह नगर बना। 1554 में जापानी आक्रमणकारियों से सुरक्षा हेतु चारदीवारी बनी। सांग कालीन यह शहर जुलाई 1921 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रभुत्व में आया। और उसका मुख्यालय भी यही था। 1937-1945 के यु( के समय जापानियों ने 

इस पर कब्जा कर लिया था। सन् 1949 में चीनियों ने पुनः इसे कब्जे में कर लिया और सुनयात सेने के नेतृत्व में पीपल्स आर्मी ने वहाँ राष्ट्रीय सरकार का गठन किया। यह शहर सूती वस्त्र निर्माण के लिये विख्यात था अब यहाँ विश्व का सबसे बड़ा बदंरगाह है। बायी ओर हांगफु नदी जिसे पीली नदी या चीन का शोक भी कहा जाता है व दक्षिण के कुछ ओर यांगत्सी नदी के किनारे ,पूर्व में चीनी सागर है। है समुद्र से घिरा, पर समुद्र से बहुत दूर है।

आज ये विश्व का यह सबसे बड़ा व्यावसायिक केंद्र बना हुआ है। इसके बीच हांग यू नदी व वू सुग नदी का संगम है उसने इसे दो भागों में बाँट दिया है यहाँ सरकारी गैर सरकारी सभी कंपनियों के बड़े-बड़े दफ्तर हैं। पूरा शहर झील नदी झरनों आदि से आच्छादित है।शंघाई में पहुँचकर हमें लगा यहाँ जन सैलाब है परंतु सैलाब कारों का अधिक था छोटी-बड़ी कारें, बसें, ट्रक भाग रहे थे। दोनों तरफ बड़े-बड़े शो रूम थे। रंगीन शीशे का अधिक उपयोग हुआ था। वहाँ की सबसे पाश और भव्य शोरूमों से सज्जित नानंिकंग रोड देखी। वहाँ हर ब्रान्ड के शोरूम थे। बहुमंजलीय शोरूम देशी-विदेशी सभी प्रसि( ब्रान्ड थे वहाँ स्वयं चीन का कुछ नहीं दिख रहा था। वस्त्र ज्वैलरी एक्सेसरीज घड़ी आदि सभी नामी-गिरामी नाम वहाँ पर थे। कहा जाता है वह स्थान विश्व के सबसे मंहगे स्थानों में से एक है इसकी तुलना पेरिस से की जाती है वह सड़क पाँच किलोमीटर लंबी है। एक एक कर हम दुकानें देखते जा रहे थे और कह रहे थे  यह सामान हमारे यहॉं बहुत कम में मिल जाती है यहॉं से यह क्यों खरीदें ।

  हमने दीपक जी से कहा,‘भई,यह तो रहा यहॉं आने वाले अरबपतियों की खरीदारी का स्थान अब हमें हमारी जेब वाली जगह ले चलिये । कभी कभी स्थिति अजीब सी हो जाती है दीपक तो हमें वहॉं की सबसे अच्छी शॅपिंग की जगह दिखा रहे थे और हम जेब देख रहे थे साथ ही सोच रहे थे यही ब्रांड भारत में इससे आधे दाम पर मिलता है तो यहॉं से क्यों ख्रीदें और उस देश की बनी वस्तु देखें । एक मोड़ के पश्चात् ही एक ऐसे बाजार में आ गये जहॉं छोटी छोटी दुकानें थी,छोटे दरवाजों में होकर पतली सीढ़ियॉं ,सीढ़ियों  के हर मोड़ पर छोटी सी दुकान वहॉं पर कीमती से कीमती सामान मैाजूद था,डुप्लीकेट भी था,पैन की दुकान जूते चप्पल की दुकान,जरा लंबाई ठीक है तो सिर झुकाये रहना पड़ेगा । नानकिंग रोड पर जो वस्तु हजार रुपये की थी वहॉं दो सौ की थी। जो डुप्लीकेट बताया वह सामान भी बिलकुल फरक नहीं लग रहा था ।कपड़े भी हाथ में लेने पर वही एहसास दे रहे थे । डुप्लीकेट हो या कुछ पर वहॉं सबने जम कर खरीदारी की ।


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