कुल्लू का दषहरा
देवताओं की घाटी कुल्लू ,लगता है धरती का सारा सौंदर्य सिमट कर वहीं आ गया है । आकाष से बातें करती वर्फ से ढकी पहाड़ियां,धैलाधार, पीरपांजाल जैसी ऊंची पर्वत श्रंखलाऐं,व्यास नदी। किन्नरियों और देवी देवताओं की धरती में धार्मिक उत्सव भी उतने ही उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है जैसे स्वर्ग का आयोजन हो ।
दषहरा कुल्लू घाटी में संभवतः सात सौ साल से मनाया जा रहा है। इस दिन सारी घाटी से करीब 360 देवी देवता रघुनाथ जी की वंदना करने आते हैं।
लोक श्रुति के अनुसार 700 साल पहले कुल्लू के राजा जगत सिंह ने एक ब्राह्मण से मोती छीन लिये। ब्राह्मण ने राजमहल में आग लगा दी और स्वयं भी अग्नि के सामने बैठकर तेजधार के चाकू से षरीर को अंगुल अंगुल काटता अग्नि में फेंकता कहता जाता ,‘ ले राजा मोती ले ’
षापग्रस्त राजा इधर उधर भटकता घूमता खाना खाने बैठता तो थाल रक्त मांस से भरा नजर आता। अंत में वह नगर के एक संत के पास पहुंचा। संत ने उसकी व्यथा सुनी तो कहा,‘ तुम अपने पापों का प्रायष्चित करने के लिये वैश्णव धर्म अपनाओ और अयोध्या से राम जी की मूर्ति यहां लाओ और उसे स्थापित करो। जुलाई 1651 में राजा वैरागी के षिश्यों के साथ अयोध्या से मूर्ति लाया और उसे कुल्लू में राजा की गद्दी पर आसीन कर दिया।
इस प्रकार रघुनाथ जी कुल्लू के मुख्य देवता बन गये। दषहरा के दिन उन्हें मंदिर से बाहर लाया जाता है और कुल्लू के अन्य देवता उनकी अभ्यर्थना करते हैं। यद्यपि रामजी की मूर्ति अंगूठे भर की है उनके चरणों में हनुमान जी की मूर्ति भी है। साज श्रंगार से सजी उस मूर्ति की मंत्रोच्चारण के साथ उपासना होती है । रामनामी छापा तिलक लगाये रंग बिरंगे डोले में झालर आदि से सजे स्थानीय अन्य देवी देवता लिये उत्साह से भरे भक्त गाते बजाते रामजी के सामने अपासना करने आते हैं।
कुललू का दषहरा देष मेंअन्य मनाये जाने वाले दषहरे से सर्वथा भिन्न तरह से मनाया जाता है । पूरे देष में दषहरा वाले दिन रामलीला का अंत होता है और कुल्लू में उस दिन से दषहरा पर्व षुरू होता है और पूर्णिमा के दूसरे दिन तक मनाया जाता है। लेकिन न राम लीला होती है न रावण जलाया जाता है लेकिन पूरा कुल्लू राम मय होता है ।
देवी देवताओं का आगमन ढप करताल बजाते नाचते भक्तों के साथ प्रारम्भ होता है ।सबसे पहले देवी हिडम्बा पधारती हैं।इनका मंदिर मनाली में देवी धंूगरी में है। हिडिम्बा देवी की मान्यता महाभारत काल से है । वनवास के दौरान दानवी हिडम्बा को भीम ने देखा और मुग्ध हो गया। हिडिम्बा के भाई दानव हिडिम्ब को मारकर भीम ने हिडिम्बा से षादी करली। भीम से षादी के बाद अपनी बीती हुई जिन्दगी के प्रायष्चित के लिये हिडिम्बा ने षिव की घनघोर तपस्या की और देवी का पद प्राप्त किया। इस प्रकार घाटी में षैव और वैश्णव दोनों मतों की मान्यता है । इसके बाद अन्य देवी देवता पधारते हैंऔर रघुनाथ जी की उपासना करने के बाद कहीं तम्बू में विश्राम करते हैं ।
पूर्णिमा के दिन सभी देवी देवता अपने विश्राम स्थल से बाहर लाये जाते हैं। उस दिन सब सामूहिक रूप से रघुनाथजी की वन्दना करते हैं क्योंकि दूसरे दिन सबको वापस अपने अपने गांव लौटना होता है । एक एक कर देवी देवता रघुनाथ जी के सामने से निकलते हैं और तीन बार झुक कर रघुनाथ जी को प्रणाम करते हैं ।
कहा जाता है देवता के स्वरूप में उन दिनों उनकी आत्मा आ जाती है। अंतिम दिन जब सब देवी देवताओं की विदाई का समय आता है रधुनाथ जी का रथ फिर तैयार किया जाता है और रस्सियों से खींचते हुए मैदान में चक्कर लगाते हुए,पहाड़ी के किनारे तक लाया जाता है। वहां से व्यास नदी के दर्षन किये जाते हैं। विजयघोश के नारों के संग नदी के दूसरे किनारे पर लंका दहन होता है और भैंसा ,बकरी ,मेढ़ा मछली , और कंेकड़े की बलि दी जाती है। बुराई के दहन के बाद विजयघोश के साथ रथ यात्रा प्रारम्भ होती है और कुल्लू षहर में घुमाते हुए भक्त भक्ति रस में सराबोर उन्हें डनके सुल्तानपुर मंदिर की ओर ले जाते हैं । और सभी देवता अपने स्थानों को वापस लौट जाते हैं ।
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