गर्मी के दिन थे ,बिजली थी कि बार बार धोखा दे जाती थी,पंखा बैठक का वैसे भी धीमा चलता था आजकल के से पंखे तो थे नहीं किर्र किर्र करते चलते पर हवा तो लगती रहती थी पर बिजली चले जाने पर बड़ी मुष्किल होती थी ।
हम बच्चों को पंडितजी पढ़ाने आते थे । एक दिन बिजली चले जाने पर मां ने दुछत्ती पर गद्दा लगवा दिया। हवा ठंडी चल रही थी हमें काम देकर पंडित जी ऊंघने लगे। उन्होंने मसनद पर एक हाथ रखकर सिर टिकाया और आधी आधी टांग पसार ली । गदबदे ष्षरीर के पंडितजी की तोंद भी कुछ ज्यादा ही बड़ी थी ,जैसे घड़ा रखा हो , हवा के लिये उन्होंने फतुही ऊपर खिसका ली। हम बड़ी लगन से सवाल कर रहे थे कि धप की आवाज हुई और हड़बड़ा कर पंडितजी चीखे मरा रे। पास की छत से एक बंदर पता नहीं पंडितजी की टुंडी पर बने चंदन के गोल घेरे को क्या समझा कि उसे लेने कूद पड़ा सब चीखे तो छलांग लगा भाग गया, पंडितजी बंदर को नहीं देख पाये थे वो हकबकाये से देख रहे थे कि यह हुआ क्या था ।
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