Tuesday, 12 July 2022

guru bhakti allokik udahran

 गुरू भक्ति शिष्य प्रेम का अलौकिक उदाहरण

स्वामी दयानन्द के हृदय में ज्ञानार्जन की अग्नि प्रज्वलित थी। उनके मन मस्तिष्क में अनेकों प्रश्न झंझावात की तरह उठते थे। उनका वे समाधान चाहते थे। ऐसा क्यों ............. वो ज्ञान तत्व तक पहुँचना चाहते थे। इसलिये घर को छोड़कर ज्ञान की खोज में गये। दुर्दान्त दलनकारी शिव के मस्तक पर चढ़कर चूहा अक्षत खा सकता है। तब वह मूर्ति में तो नहीं है, है तो अवश्य पर कहाँ है? किसमें है? शिव है मात्र पार्वती का पति नहीं है। गुरू मिले तो उनकी ज्ञान जिज्ञासा को अमृतमय का ज्ञान करायें । हिमालय की कंदराओं में महान संत रहते हैं वो बद्रीनाथ गंगोत्री गोमुख तक हो आये, पैदल कंटकाकीर्ण पथ चढ़ते गुफाओं को देखते नर्मदा के उद्गम स्थल तक गये। हरिद्वार, वाराणसी जहाँ उन्हें विद्वान सुनाई पड़ते वहाँ पहुँचते उनसे चर्चा करते । जिज्ञासाओं को शांत करने का प्रयास करते, लेकिन उन्हें कहीं भी संतोष नहीं मिला, लगता ज्ञान अधूरा है। विद्वानो की खोज करते करते मथुरा पहुँच गये। वहाँ सुना था कि कोई दंडी स्वामी विरजानन्द उद्भट विद्वान हंै। जा पहुँचे विरजानंद स्वामी की शरण में ,उन्हांेने सुना दण्डी स्वामी विरजानन्द की स्मरण शक्ति और धारण शक्ति अद्भुत है। विचार शक्ति प्रबल है। अनेकों ग्रन्थ  उन्हें कण्ठाग्र है। विरजानन्द की व्याकरण विद्या की दीप्ति अद्वितीय है। 

कार्तिक सदी 2 सम्वत् 1917 को स्वामी दयानन्द ने मथुरा में दण्डी जी की अट्टालिका पर चढ़कर द्वार खटखटाया। दण्डी जी ने पूछा ,‘कौन है ’।

 उत्तर मिला‘ दयानन्द सरस्वती ’।

‘तुम कुछ व्याकरण भी पढ़े हो।’ 

‘महाराज! सारस्वत् आदि व्याकरण ग्रन्थ पढ़ा है।’ 

इस उत्तर के साथ ही द्वार खुल गये। प्रणाम कर स्वामी दयानन्द विनीत माव से बैठ गये। विरजानन्द पूछते रहे कि आगन्तुक का ज्ञान कहाँ तक है। दयानन्द से जानकर बोले ‘दयानन्द अब तक जो कुछ अध्ययन किया है। उसका अधिक भाग अनार्ष ग्रन्थ हैं। ऋषि शैली सरल और सुंदर है परन्तु लोक उसका अबलम्बन नही करता। जब तक तुम आनार्ष पद्वति का परित्याग न करोगे तब तक आर्ष ग्रंन्थांे का महत्व और मर्म नहीं समझ सकोगे। पहले सब अनार्ष ग्रन्थ यमुना में बहा आओ और आर्ष ग्रंथ पढ़ने के अधिकारी बनो।’दूसरी बात जो शिष्य बनाने से पहले दण्डी स्वामी ने दयानन्द से कहीं वह थी कि सन्यासियों को विद्यार्थी बनने में बाधा पड़ती है। भोजनाच्छादान की चिन्ता से मुक्त हुए बिना विद्याभ्यास कैसा अतएव अपने आवास और खानपान की व्यवस्था करके आओ। 

मथुरा में प्रवेश के साथ दयानन्द ने अपना डेरा रंगेश्वर मंदिर में डाला था । लेकिन योग्य गुरू से शिक्षा प्राप्त करनी थी । वे विश्राम घाट के ऊपरी भाग स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर की एक छोटी सी कोठरी में रहने लगे। कोठरी आज भी है, लेकिन उसे देखकर विश्वास नहीं होता मात्र लेटने भर की जगह है। वहीं उन्होंने अपना डेरा डाला। बाबा अमरलाल जो ज्योतिष बाबा के नाम से जाने जाते थे । प्रतिदिन सौ ब्राह्मणों को भोजन कराते थे। उनके द्वारा भोजन व्यवस्था हुई और दयानन्द सारा दिन गुरूशरण में रहते। 

दण्डी स्वामी जी के यहाँ प्रातः ही दयानन्द पहुँच जाते थे। उन्हें ज्ञात हुआ विरजानन्द ब्राह्म मुहूर्त में पुष्कल पानी से स्नान करते हैं तो वे बड़ी रात उठकर गुरू स्नान से पूर्व ही यमुना जल के कई घड़े अपने कन्धे पर उठाकर  लाते और स्नान योग्य जल एकत्रित कर देते तथा सांयकाल को भी स्नान के लिये जल ले आते थे। पीने के लिये पानी बीच जल धारा से लाते आंधी होती तूफान चाहे वर्षा लेकिन गुरू कार्य में दयानन्द में कभी व्यवधान नहीं हुआ। 

स्वामी जी की गुरू सेवा, प्रतिभा, स्मरण शक्ति, ग्राह्य शक्ति से दण्डी स्वामी बहुत प्रभावित हुए और अपने इस योग्य शिष्य से अतिशय प्रेम करने लगे। लेकिन प्रेम का अर्थ नहीं था कि वे अध्ययन में किसी प्रकार की कोताही करते। एक दिन दण्डी स्वामी दयानन्द पर कुछ क्रुद्ध हो गये । उनका स्वभाव उग्र था वे शिष्यों पर लाठी भी उठा देते थे। उन्होंने उन्हें कठोर शब्द कहते हुए लाठी मारी। स्वामी दयानन्द पर लाठी के प्रदार से किसी प्रकार का असर नहीं हुआ। वे पाठ याद करते रहे, लेकिन निकट बैठे नयनसुख ने हाथ जोड़कर विरजानन्द जी से निवेदन किया ‘‘महाराज ये दयानन्द सन्यासी है। उन्हें मारना तो उचित नहीं होगा । दण्डी स्वामी बोले ‘बहुत अच्छा आगे हम इसे आदर से पढ़ायेगें। बाद में संध्या काल कक्षा समाप्ति पर दयानन्द ने नयनसुख से कहा,‘ मेरे गुरू से कुछ भी क्यों कहा। अगर वे मारते हैं तो हित बुद्धि से जैसे कुम्हार घड़े को पीटपीट कर सुडौल बनाता है। उसी प्रकार गुरूदेव हमारी कल्यान कामना से वशीभूत हमें ताड़ित करते है।’ पूर्व में भी क्रोधवेश में दण्डी स्वामी ने कसकर एक बार लाठी उनकी भुजा पर मारी वह चोट जिंदगी भर बनी रही। इसे जब तब सिर माथे लगा लिया करते थे। वह उसे गुरू प्रसाद मानते थे। 

चोट इतनी तीव्र थी कि भुजा पर निशान बन गया लेकिन दयानन्द ने गुरू से कहा ‘गुरू महाराज मेरा शरीर कठोर है। आपके हाथ कोमल मारने से आपके सुकोमल हाथों में चोट आयेगी इसलिये मत मारा कीजिये ’स्वामी दयानन्द के यश की कीर्ति मथुरा नगर में फैल चुकी थी । एक बार दयानन्द पद्मासन लगाये समाधिस्थ थे एक महिला श्रद्धानत हो उनके चरणों में झुक गई उसके भीगे केश और वस्त्र दयानन्द जी के चरणों को स्पर्श करने लगे। स्वामी जी के नेत्र खुल गयें। वे माता माता कहकर उस स्थान से उठ गये। उनके हृदय में ग्लानि हुई और उन्होंने गोवर्धन के निकट एकान्त में निराहार तीन दिन तीन रात ध्यान चिंतन कर आत्म शोधन किया। दण्डी स्वामी बिना सूचना शिष्य की अनुपस्थिति से कुपित हो गये और  उनकी मत्र्सना की। शांति से दयानन्द गुरू के क्रोध को सहन करते रहे बाद में जब विरजानन्द शांत हुए तब उन्होने अपने प्रायश्चित की कथा सुनाई। स्वामी ने सुनकर भूरि भूरि प्रशंसा की और प्रसन्न हो गये। 

एक बार दण्डी स्वामी विरजानन्द का दूर का सम्बन्धी मथुरा आया उसने विरजानन्द से मिलना चाहा लेकिन उन दिनों विरजानन्द ने शिष्यों को आज्ञा दे रखी थी कि कोई भी हो मुझसे मिलने मेरे स्थान पर न आवे। वह दयानन्द जी से मिला और उनसे बहुत प्रार्थना की कि बस मैं दर्शन कर चला जाऊँगा बोलूँगा नहीं। दयानन्द जी ने बहुत कहा कि अगर बिना आज्ञा ले जाऊँगा तो गुरूजी अप्रसन्न हो जायेंगे । पर वह व्यक्ति बहुत प्रार्थना करने लगा। ‘अब दर्शन लाभ नहीं कर पाऊँगा तो फिर कभी नहीं कर पाऊँगा। बस चुपचाप दूर से दर्शन करके चला जाऊँगा।’ सहृदय दयानन्द उस व्यक्ति को अट्टालिका पर ले आये। उस व्यक्ति ने मौन रहकर दण्डी स्वामी के दर्शन किये और शनैः शनैः वापस चला गया । स्वामी दयानन्द भी आ गये लेकिन सीढ़ियाँ उतरते एक व्यक्ति मिला उसने विरजानन्द जी से पूछ लिया ‘दयानन्द के साथ जो व्यक्ति आया था कौन था।’’ यह जानकर कि दयानन्द किसी को लाये थे वह चुपचाप लौट गया’’ वे दयानन्द पर कुपित हुए ‘मुझे नेत्रहीन जान मेरे साथ छल किया तेरे लिये यह ज्योति हमेशा के लिये बंद होती है ।’ दयानन्द जी ने बहुत अनुनय विनय की लेकिन व्यर्थ। दयानन्द बहुत दुःखी हो गये। उधर विरजानन्द ने दण्ड तो दे दिया लेकिन अपने प्रिय शिष्य की अनुपस्थिति से बेचैन थे । जब नयनसुख ने क्षमा याचना की तो तुरंत दयानंद को क्षमा कर दिया। दोनों ही परम प्रसन्न हुए। 

दण्डी स्वामी दयानन्द को ‘कालजिह्य और कुलक्कर’ कहकर बुलाया करते थे। कालजिह्य अर्थात् जिसकी जिह्या असत्य के खंडन में काल के समान कार्य करे। कुलक्कर का अर्थ है खूंटा अर्थात् जो विपक्षी का परामूत करने में खूटे के समान दृढ़ हो। उनकी तर्क शैली पर विरजानन्द मोहित थे । वे कहते ‘दयानन्द’ मैने बहुत से विद्यार्थियों को पढ़ाया पर आनन्द तुम्हें पढ़ाने में आया। ऐसा आनन्द आज तक नहीं आया। गुरू शिष्य में घण्टो तर्क वितर्क होते रहते । अनेक गूढ तत्वों पर चर्चा परिचर्या होती। विरजानन्द कहते थे। मुझे अपना संचित ज्ञान सौपने में बड़ा संतोष हो रहा है। 

जिस समय दयानन्द ने पाठशाला छोड़ी उन्होंने आधा सेर लौंग दण्डी स्वामी के चरणों में रखते कहा ‘आपकी असीम कृपा रही। आपने मुझे विद्वान बना दिया। अब मैं देशाटन पर निकलना चाहता हूँ। आपकी सेवा में मेरे पास कुछ नहीं है। बस ये कुछ लौंग भेंट कर रहा हूँ। विरजानन्द ने नत शिष्य के  सिर पर स्नेह से हाथ रखा। उनकी वाणी रूद्ध हो गई, जी भर गया,‘ वल्स मैं ईश्वर से आपके लिये मंगलकामना करता हूँ । पर गुरू दक्षिणा में कुछ भिन्न वस्तु मांगता हूँ।’ 

दयानन्द ने कहा,‘ गुरूदेव आज्ञा दें यह सेवक आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके मन वचन कर्म से निभायेगा’ । विरजानन्द ने कहा ‘मैं तुमसे तुम्हारे जीवन की दक्षिणा मांगता हूँ तुम प्रतिज्ञा करो। जब तक जीवित रहोगे आयविर्त में आर्षग्रन्थ का प्रचार, अनार्ष ग्रन्थों का खंडन करोगे तथा भारत मंे वैदिक धर्म की स्थापना हेतु अपने प्राण तक न्यौछावर कर दोगे, गुरू  दक्षिणा में यही वस्तु मुझे दान करो। सांसारिक किसी पदार्थ की मुझे चाह नहीं है। ’

स्वामी दयानन्द ने गद्गद् कंठ से कहा,‘ श्री महाराज देखेंगे कि उनका प्रिय शिष्य प्राण पण से आज्ञा का पालन किस प्रकार करता है।’ स्वामी दयानन्द ने अपने बाजुओं मंे गुरू के चरणो को भरा और नत सिर कर अंतिम प्रणाम किया। गुरू ने भी स्नेहिल हाथ फेरते कहा,‘ जाओ दयानन्द ईश्वर आपको सुख सफलता प्रदान करे। आपके मनोरथ सिद्ध हों’। इसकि पश्चात् संवत् 1923 को स्वामी दयानन्द आगरा होते हुए मथुरा गुरू के चरणों मं वंदना करने गये। एक सुवर्ण मुद्रा और एक मलमल का थान भेंट किया। भागवत खंडन की पुस्तक के विषय में बताया। गुरू अपने सुयोग्य शिष्य से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। गुरू चरणों में कुछ दिन बिताने का लोभ दयानन्द नही छोड़ पायें और कई अपनी शंकाओं का समाधान करते रहे। फिर वहाँ से दयानन्द कुम्भ मेले                 में चले यह गुरू शिष्य का अंतिम मिलन था। 

क्वार वदी 13, 1925 को स्वामी दयानन्द को अपने गुरू की मृत्यु का समाचार मिला। सुनकर सन्न रह गये। कुछ देर कुछ न कह सके फिर बोले ‘आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया’’ जिस दयानन्द को सगे सम्बन्धियों का विछोह न हिला सका गुरू से विछोह की सुनकर हिल गये । सच्चे गुरू शिष्य के सम्बन्ध की अलौकिकता का अनुपम उदाहरण है।


डा॰ शशि गोयल

सप्तऋषि अपार्टमेंट

जी -9 ब्लाॅक -3  सैक्टर 16 बी

आवास विकास योजना, सिकन्दरा

आगरा 282010 ॰9319943446

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