Wednesday, 10 November 2021

Asmaan

 

जब कभी छोटे-छोेटे दोनों पोते-पोती ऊबकर अपने कम्प्यूटर केा बंद कर मोबाइल को एक तरफ फैक कर मेरे गले में बाहें डाल कर मेरे इधर-उधर लेट जाते हैं और कहते हैं दादी कोई कहानी सुनाओ ,जैसे अनेकों चाँद तारे मेरे सामने बैठ गये हों । पहुँच जाती हूँ अपनी दादी की दुनिया में, जब शाम झुकने लगती और जी लेती चाची, ताई, बुआ  और अपनी दादी की दुनिया। घर की महिलायें  रसोई के काम केा समाप्त कर मुँह हाथ धोने ,दिनभर के कामों की वजह से गंदलाए कपड़ों को बदलने अपने अपने कमरों में चली जाती । हम सब भाई-बहनें खाना खा चुकते दादाजी, बाबूजी, ताऊजी बड़े चाचा व्यापार आदि से वापस आयें तो घर की बहुएँ साफ सुथरी दिखें । थालियों में खाना खिलाते में सब वही बैठती थी और दादी केा घेर कर हम सब मुँह हथेली पर रख बैठ जाते,‘ दादी ! दादी कहानी सुनाओ।’ एक कहता दादी भूत वाली  तो एक दो सिकुड़ कर दादी से सट जाते कोई कहता परियों वाली और झट से सबके चेहरे पर जैसे चाँदनी नृत्य करने लगती।  ढिबरी की रोशनी ऊपर आले में जलती अपने घर को तो काला करती रहती पर हमारे चेहरों को रोशन करती रहती थी। अगर तिलस्मी कहानी होती या राक्षस की कहानी तो बस दादी की आवाज गूंजती और सब सिकुड़ते एक दूसरे से चिपके दादी के चेहरे को देखते रहते। वातावरण रहस्यमय और भी हो जाता यदि हवा से लौ काँप उठती कभी देर से लोटती चिड़िया चिचिया उठती तो सबके हाथ पैर सिकुड़ जाते पर नहीं दादी यही सुनाओ।

अपने पोते पोती को कहानी सुनाते चलती जाती हूँ उस रहस्यमय वातावरण में लेकिन उस जैसा वातावरण लाख कोशिश करने पर भी नहीं बना पाती। चंद लाइन बोल पाती हूँ कहानी का किरदार न अभी जंगल पहुँच पाया न पहाड़ी पर वह सो जाते पर मेरी दादी के किरदार न जाने कितने राक्षस कितने सिर वाले सर्पों को मारता जाता किर्रकिर्र करता दरवाजा खुलता। चीखते गि( निकलता। छोटे से छोटा बच्चा भी नहीं सोता था कथा खत्म होने लगती छोटे-छोटे बच्चे एक एक कर वही लुढ़कने लगते तो माँए दूध लेकर आ जाती । दूध के गिलास सबको देकर छोटे बच्चों को ले जाती और बड़े वहीं दादी के बड़े से तख्त पर लेटने लगते कोई भी ताई, चाची, माँ आती सबको चादर आदि ओढ़ा जाती और बच्चे सपनीली दुनिया में परियोँ के साथ नाचते तलवार लेकर राक्षसों का संहार करते जाते कहानी सुनाते-सुनाते में उस दादी को जीने लगती हूँ। 

चिप्स, कुरकुरे, पीज्जा, वर्गर के लिय माँ से जिद करते हैं तो मैं माँ से यादों में चिपक जाती हूँ दाल पीसती खाना बनाती माँ की पीठ पर लटकना फिर चुपचाप खटाई चीनी हथेली पर रख किसी कोने में छिप कर चाटना। वैसे दूसरी मंजिल का जीना इस सब कामों के लिये सुरक्षित था। कतारे, इमली, खट्टी-मीठी गोलियाँ यह छिपकर खाना हमारा मुख्य खाना होता। छुट्टियों में तो पेटों में जैसे भूत बैठ जाते जो भी घर में होता नहीं बचता डिब्बे के डिब्बे साफ होते। सारा दिन 

धमा-चैकड़ी, बड़ा सा आंगन धूप हो या बारिश गरमी हो या सर्दी हम बच्चों के शोर से गुलजार रहता। जितनी महिलाएँ थी सब सब बच्चों की माँ थी कोई भी डांट जाता चिल्ला जाता खाने को पकड़ा जाता किसी भी का पल्ला खींच जो चाहते मांग लेते, याद आती है वो कई कई माँए और देखती हॅंू आज की माॅं बच्चे के मन पसंद खाने को भी लिये  उनके पीछे दौड़ती रहती हैं ।



















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