Tuesday, 30 November 2021

sahitya bhooshan

 28 नबम्बर को  परम विद्वान डा ह्नदय नाथ दीक्षित जी द्वारा यशपाल सभागार लखनऊ में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान से सम्मानित किया गया।सम्मान डा अमिता दुबे,ह्नदयनाथ दीक्षित जी  पंकजकुमार सदानंद गुप्ता जी शीतांशु जी द्वारा प्रदत्त किया गया।

बहुत ही अच्छा लगा इतने विद्वानों द्वारा सम्मानित होना लेकिन कहीं कसक रह गई, योगी जी  का न आना कुछ खुशी कम हो गई। कितना अच्छा  था मन जब तक यह था कि सम्मान योगी जी और दीक्षित जी द्वारा मिलेगा। अब कहां मिलेगा ऐसा अवसर ।

Friday, 26 November 2021

मनुष्य कृतघ्न क्यों

 

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Thursday, 25 November 2021

hindu dharm

 

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Tuesday, 23 November 2021

गाँव की ओर

 

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Friday, 19 November 2021

बेवकूफ ki san

 

 

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Wednesday, 17 November 2021

muktak

 जिसके कंधे पर पिता का हाथ है 

उसको सारी दुनिया का साथ है

जिनको मिलती हैं माॅं बाप की दुआऐं

हिम्मत नहीं सागर  उनकी नाव डुबाये ।


Tuesday, 16 November 2021

नौकर

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 अभी तक पकोड़े तलना काम नहीं माना जाता था यह काम नहीं है काम केवल सरकारी नौकरी है अब कुछ लोग बड़े बड़े  विज्ञापन दे रहे हैं कि बे टा नौकरी देने वाले बनो  कहीं कोई पूछ न ले कि बड़े नौकरी के वादे किये थे  क्या हुआ  वैसे  बचपन से आजतक इतनी उम्र का पड़ाव पार कर लिया पर  ये आशीर्वाद देते तो सुना कलक्टर बनो तरक्की करो पर आजतक यह कहते नहीं सुना अच्छी सी नौकरी करना आज भी हमारे समाज मैं नौकरी कैसी भी हो नौकर नौकर ही रहेगा पर विज्ञापन विज्ञापन है जनता को बहलालो जैसे भी होA

Sunday, 14 November 2021

किस्सा सच है कहानी

 किस्सा सच है



किस्सागोई का भी अपना आनन्द है ,जब चैपाल पर बैठे बुजुर्ग अपने हाथ पैर और चेहरे से अभिनय के साथ-साथ घटनाक्रम जोड़ते चलते है्र। बड़ा ही आनन्द आता है। अधिकतर हर गांव का कोई न कोई व्यक्ति ऐसा होता है जो कथा, गांव में घटी घटना या आसपास के इलाकों में धटी घटना को नमक मिर्च मिलाकर कभी-कभी खट्टी इमली की चटनी मिलाकर परोसते है। 

आजकल शहर से गांवों में कुछ रात बिताने का भी फैशन बढ़ता जा रहा है। आदर्श गांव बनाओ फिर उस गांव मे जाओ रहो बसो वह भी एक दो दिन बस,असली गांव में जाने की हिम्मत शहर से कम ही लोग करते है। हम मजबूर थे। हमारी नानी का घर आदर्श गांव नहीं था ज्यादा से ज्यादा पचास कच्चे पक्के मकान उन्हीं में गाॅंव प्रधान का मकान जमींदार का बाड़ा और कुछ मकान सरकारी क्वार्टर बगेरह था। उन्हीं में हमारी नानी की हवेली भी थी। नानी के घर छुटपन में तो आम जामुन तोड़ तोड़ कर खाने के लालच मेें जाते थे लेकिन पढ़ने लिखने में जुटने के बाद तो बहुत साल बाद ही जाना हुआ। वह भी माँ की जिद से एक बार हवेली देख आयें कैसी है। मामा पढ़ने शहर गये तो सीधे आस्ट्रेलिया पहुँच गये। बंद हवेली का विशाल फाटक मुतहा हवेली की तरह किर्र किर्र कर बोल उठा । माँ को अन्दर हवेली के निरीक्षण के लिये छोड़ मैं गांव की सैर को निकल पड़ा ‘राम राम काका’ चैपाल पर बैठे कुछ बुजुर्गो को देखकर मै रूक गया ।

‘खुस रहे लला कौन केे बिटवा हओ नथनिया के कि अमरिया के ’ भौचक्का सा इन  नामों को विश्लेषण कर रहा था कि एक और कम बुजुर्ग बोल उठे ,‘नाया दद्दू नथनिया का धेवता है अमरियो के बचुवा तो अंग्रेज है गये है वो काये आवेंगे अब गाम में नथनिया  की बिटिया आई है । हवेली देखन कू।’ पटवारी साहब की बिटिया आई है । माँ के आने की खबर सारे गांव में फैल गई थी। मैं देख रहा था कोई मट्ठा लेकर कोई पानी लेकर हवेली की ओर जा रही थी अर्थात् खाने पीने की समस्या का हल हो गया था। 

नथनिया अर्थात् नानी का नाम नत्थादेवी और अमरिया यानि मामा अमर नाथ गांव वालों के लिये विदेश सचिवालय मे उच्च पद पदस्थ अधिकारी आज भी घुटन्ना पहने गायों को हांकने वाला अमरिया था । गांव के स्कूल के शिक्षक भी वहीं बैठे थे । ‘अरे अमरिया तो बहुत बड़ा आदमी है गयाूे है वो का आयेगो अब। तभी सामने के मकान के चबूतरे पर एक भव्य व्यक्तित्व बाहर निकला लम्बे चैड़े गोरे लाल भभूका ,एक सा लेकिन बलिष्ठ बदन एकदम सफेद कुर्ता और धोती किसी भी साबुन के सफेदी के विज्ञापन के लिये उपयुक्त था। उसने मूढ़ा खिसकाया और अखबार लेकर खोल लिया। मेरी उत्सुक निगाहों को देख बुजुर्ग बोले,‘ अरे हमारे जमादार सहब है।’ जमादार साहब मै चैक उठा वर्तमान में जमादार का जो भी अर्थ हो ऐसा भव्य व्यक्तित्व और जमादार। शिक्षक मेरी उलझन भंाप गया।  अरे लला पहले जमेदार या जमादार गांव का बहुत इज्जतदार आदमी होता था। अब जमादार का अर्थ बदल गया है पर अब सब बाबू साहब कहने लगे है या आज भी  गांव की सभी समस्याओं का हल इन्हीं के पास है। इनके ससुर दस गांव के जमींदार थे। अकेली बेटी थी। ब्याह के बाद इनके दिन बदल गये। बड़ी किस्मत वाले हैं हमारे जमींदार साहब। 

"शेष  कल 

Wednesday, 10 November 2021

Asmaan

 

जब कभी छोटे-छोेटे दोनों पोते-पोती ऊबकर अपने कम्प्यूटर केा बंद कर मोबाइल को एक तरफ फैक कर मेरे गले में बाहें डाल कर मेरे इधर-उधर लेट जाते हैं और कहते हैं दादी कोई कहानी सुनाओ ,जैसे अनेकों चाँद तारे मेरे सामने बैठ गये हों । पहुँच जाती हूँ अपनी दादी की दुनिया में, जब शाम झुकने लगती और जी लेती चाची, ताई, बुआ  और अपनी दादी की दुनिया। घर की महिलायें  रसोई के काम केा समाप्त कर मुँह हाथ धोने ,दिनभर के कामों की वजह से गंदलाए कपड़ों को बदलने अपने अपने कमरों में चली जाती । हम सब भाई-बहनें खाना खा चुकते दादाजी, बाबूजी, ताऊजी बड़े चाचा व्यापार आदि से वापस आयें तो घर की बहुएँ साफ सुथरी दिखें । थालियों में खाना खिलाते में सब वही बैठती थी और दादी केा घेर कर हम सब मुँह हथेली पर रख बैठ जाते,‘ दादी ! दादी कहानी सुनाओ।’ एक कहता दादी भूत वाली  तो एक दो सिकुड़ कर दादी से सट जाते कोई कहता परियों वाली और झट से सबके चेहरे पर जैसे चाँदनी नृत्य करने लगती।  ढिबरी की रोशनी ऊपर आले में जलती अपने घर को तो काला करती रहती पर हमारे चेहरों को रोशन करती रहती थी। अगर तिलस्मी कहानी होती या राक्षस की कहानी तो बस दादी की आवाज गूंजती और सब सिकुड़ते एक दूसरे से चिपके दादी के चेहरे को देखते रहते। वातावरण रहस्यमय और भी हो जाता यदि हवा से लौ काँप उठती कभी देर से लोटती चिड़िया चिचिया उठती तो सबके हाथ पैर सिकुड़ जाते पर नहीं दादी यही सुनाओ।

अपने पोते पोती को कहानी सुनाते चलती जाती हूँ उस रहस्यमय वातावरण में लेकिन उस जैसा वातावरण लाख कोशिश करने पर भी नहीं बना पाती। चंद लाइन बोल पाती हूँ कहानी का किरदार न अभी जंगल पहुँच पाया न पहाड़ी पर वह सो जाते पर मेरी दादी के किरदार न जाने कितने राक्षस कितने सिर वाले सर्पों को मारता जाता किर्रकिर्र करता दरवाजा खुलता। चीखते गि( निकलता। छोटे से छोटा बच्चा भी नहीं सोता था कथा खत्म होने लगती छोटे-छोटे बच्चे एक एक कर वही लुढ़कने लगते तो माँए दूध लेकर आ जाती । दूध के गिलास सबको देकर छोटे बच्चों को ले जाती और बड़े वहीं दादी के बड़े से तख्त पर लेटने लगते कोई भी ताई, चाची, माँ आती सबको चादर आदि ओढ़ा जाती और बच्चे सपनीली दुनिया में परियोँ के साथ नाचते तलवार लेकर राक्षसों का संहार करते जाते कहानी सुनाते-सुनाते में उस दादी को जीने लगती हूँ। 

चिप्स, कुरकुरे, पीज्जा, वर्गर के लिय माँ से जिद करते हैं तो मैं माँ से यादों में चिपक जाती हूँ दाल पीसती खाना बनाती माँ की पीठ पर लटकना फिर चुपचाप खटाई चीनी हथेली पर रख किसी कोने में छिप कर चाटना। वैसे दूसरी मंजिल का जीना इस सब कामों के लिये सुरक्षित था। कतारे, इमली, खट्टी-मीठी गोलियाँ यह छिपकर खाना हमारा मुख्य खाना होता। छुट्टियों में तो पेटों में जैसे भूत बैठ जाते जो भी घर में होता नहीं बचता डिब्बे के डिब्बे साफ होते। सारा दिन 

धमा-चैकड़ी, बड़ा सा आंगन धूप हो या बारिश गरमी हो या सर्दी हम बच्चों के शोर से गुलजार रहता। जितनी महिलाएँ थी सब सब बच्चों की माँ थी कोई भी डांट जाता चिल्ला जाता खाने को पकड़ा जाता किसी भी का पल्ला खींच जो चाहते मांग लेते, याद आती है वो कई कई माँए और देखती हॅंू आज की माॅं बच्चे के मन पसंद खाने को भी लिये  उनके पीछे दौड़ती रहती हैं ।



















अन्दर से कमजोर हैं हम

 ऽ हम अपनी हस्ती तुरंत मिटा देते हैं । हमारे ऊपर सामने वाला हावी हो जाता है और हम उसकी भाषा में बात करने लगते हैं यहाॅं तक कि हमें अपने भगवान् पर भी विश्वास नहीं रहता कि हमारे सोचने से किसी को आशीर्वाद भी देंगे। हम तुरंत सामने वाले के भगवान् से ही अपनी बात करने को कहते हैं अर्थात् हमें अपने भगवान् पर भी भरोसा नहीं है। सामने वाले का भगवान् उसका है उसके लिये तुरंत उसके भगवान् को बुलाने लगेंगे । भूल कर भी अपने भगवान् से नहीं कहेंगे कि आप कुछ कृपा हमारे मित्र पर भी कर दो। नहीं पता नहीं नहीं की तो उनकी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी बताओ तो? इसलिये ईसाई से कहेंगे,यीशू आपका भला करें मुसलमान से कहेंगे अल्लाताला आपकी खैर करे सिख से कहेंगे वाहे गुरू की कृपा हो। पंजाबी से कहेंगे माता रानी की जय हो। भूलकर भी अपने किसी भगवान् का नाम नहीं लेंगे। कहीं भगवान् को सामने वाले का धर्म छू न ले । अंदर की बात है डरते हैं कि सामने वाला बुरा न मान ले ।

Sunday, 7 November 2021

कोक्रोच

 

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