मदर टेरेसा
बारह वर्ष की नन्हीं बालिका जब कलकत्ता में सेवा कार्य कर रही मिशनरी संस्था के पत्र बल्गेरिया स्थित अपने स्कूल में सुनती पीड़ितो की व्यथा कथा सुन उसका कोमल हृदय व्यथित हो उठता और वह उनकी पीड़ा हर लेने का व्याकुल हो उठती बालिका ने तभी निश्चय कर लिया कि बड़ी होकर वे कलकत्ता जाकर पीड़ितो की सेवा करेगी। यही बालिका आज की ममतामयी माँ टेरेसा है
18 वर्ष की कैशोर्य अवस्था में सन 1928 में उन्हें भारत आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहाँ वे दार्जलिंग में शिक्षा ग्रहण करके कलकत्ता के सेंट मेरी हाई स्कूल में अध्यापन करने लगी। अध्यापन कार्य वे लगन और रुचि के साथ अवश्य करती थी परंतु अपने को संबंधित वह किसी सेवा संस्था से ही करना चाहती थी।
फरवरी 1948 में उन्होंने रोम के पोप को एक आवेदन पत्र भेजा। उसमें उन्होंने निवेदन किया था कि वे कलकत्ता की झोपड़पट्टियों में काम करना चाहती है। सेवा कार्य हेतु पटना जाकर नर्स का प्रशिक्षण किया दिसम्बर में उन्होंने अपना स्कूल खोल लिया। उनकी सहायता के लिये दस सिस्टर अन्य भी आईं।
अब माँ टेरेसा दुनियाँ द्वारा टुकराये और फेंके गये शिशुओं को ले आती। जिन रोगियों को घर वाले भी हाथ लगाने से कतराते थे उनकी सेवा करने लगी। उनके महत्त्व कार्य से प्रभावित होकर कलकत्ता महापालिका ने 1952 मंें काली माँ के मंदिर से सटे हुई धर्मशाला को मदर टेरेसा को सेवाकार्य के लिये दे दिया। माँ ने उसका नाम रखा ‘निर्मल हृदय’ उसमें माँ ने मृतप्राय सड़क पर फेंके व्यक्तियों को लाकर रखा और उनकी सेवा की।
काली माँ के मंदिर का पुजारी इनका विरोधी हो उठा क्योंकि ये सभी जाति के व्यक्तियों को लाकर सेवा करती थी। उनके लिये उसने जोर लगाया कि धर्मशाला खाली करे दे। एक बार तो भीड़ इतनी उग्र हो उठी कि पुलिस बुलानी पड़ी जब प्रुलिस अधीक्षक आये तब उन्होंने देखा माँ टेरेसा एक संड़ाध भरे कीड़े पड़े व्यक्ति के घावों को साफ कर रही है और ऐसे कई रोगी वहाँ और उपस्थित है। वे भीड़ से बोले जो कार्य यह महिला कर रही है अगर तुम लोगों के घर की कोई स्त्री करने के तैयार हो तो मैं इन्हें अभी यहाँ से निकाल दूँ।
भीड़ सिरे झुकाकर चली गई। स्वंय काली माँ का पुजारी हैजे से पीड़ित होने पर घर से निकाल दिया गया। वह माँ की शरण में आया। अतः तब माँ तुमि काली कहता चिर निद्रा में सो गया।
धीरे धीरे मदर टेरेसा ने भारत के उन शहरों में अपने आश्रम खोल रखे है निराश्रितों के लिये 25 आश्रम है। 25 आश्रम अनाथ बच्चों के लिये, 70 स्कूल, 285 चिकित्सालय और 58 कुष्ठ रोग केन्द्र खोले है। उनके महत काय्र के लिये लगा न मुक्त हस्त दान किया और उन्हें पुरस्कार दिये।
सन् 1962 में उन्हें पदम्श्री से सम्मानित किया गया। उन्हें अनेको राष्ट्रीय एवम् अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार लेकिन पुरस्कार की राशि उन्होंने आश्रमों में लगादी।
6 जनवरी 1971 को उन्हें शांति पुरस्कार मिला। इस पुरस्कार में उन्हें 21,500 डालर की राशि मिली अक्तूबर 1981 में उन्हें 50 हजार पौंड का कैनेडी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला 1972 में 34 हजार पौंड का टेपलेशन पुरस्कार दिया गया तथा अक्टूबर सन् 1979 को उन्हें नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।