Monday, 18 April 2022

durbhagy

 हम भारतवासियों का यह दुर्भाग्य है कि हम विदेशी आक्रान्ताओं को सदा अपना सिरमौर बना कर अपनी सभ्यता संस्कृति को छोड़ उनकी विरासतों को ओढ़कर खुश होते हैं कि हम कितने विद्वान हैं कि हम आक्रान्ताओं की भाषा उपयोग में ला रहे हैं हम आक्रान्ता की पंक्ति में आ गये हम विद्वान हो गये हैं। यही हम हिंदी के साथ कर रहे हैं ।हिन्दी में काव्य की अनेक पद्वतियां हैं लेकिन हम हिन्दी काव्य विधा में जब तक  चार छः उर्दू के  कठिन शब्द नहीं डाल लेंगे तब तक कविता  अपूर्ण मानेंगे । संभवतः मैं उर्दू भाषा जरा भी नहीं जानती केवल जो शब्द स्वतः आ गये हैं वे ही प्रयोग में लाती हूं, शायद विरोध का एक कारण हो सकता है अज़ल गज़ल से मैं विरक्त हूं परन्तु जब मैं हिन्दी कविता में अत्यधिक उर्दू के शब्दों का प्रयोग  सुनती हॅू तो मेरा उस कविता से मोह भंग हो जाता है चाहे कितनी भी अच्छी हो मेरे हाथ ताली बजाने से इंकार कर देते हैं । संभवतः मुझे हिन्दी से मोह है खिचड़ी बीमारों के लिये होती है।

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