श्रीमती सरोजनी नायडू
प्रथम राज्यपाल
पन्द्रह अगस्त 1947 ,भारत ने आजादी की सांस ली और नये जीवन के लिये अपने पग बढ़ाये। विशाल साम्राज्य और प्रशासनिक नेतृत्व से अनजान नेताओं पर ही सबकी आँखे टिक गई। शासन की बागडोर संभालना क्या आसान काम था ? केन्द्र में कांगे्रस ने शासन संभाला। स्व॰ राजेन्द्र प्रसाद सर्वोच्च पद पर आसीन हुए, और जवाहर लाल नेहरू प्रधान मंत्री। हर राज्य में कांगे्रस के ही प्रतिनिधि राज्यपाल बनाये गये। उत्तर प्रदेश विस्तार और जनसंख्या की दृष्टि से भारत का सबसे बड़ा प्रदेश है उसके लिये जो राज्यपाल चुनी गई वो थीं श्रीमती सरोजनी नायडू। उस पद को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा ‘मैं अपने को कैद कर दिये गये जंगल के पंछी सा अनुभव कर रही हॅूं ।’ स्वतन्त्र भारत में महिलाओं के लिये शासन में पहला कदम। उन्होंने राज्यपाल के पद पर आरूढ़ होने के बाद अपना भाषण दिया।
”हे संसार के स्वतंत्र राष्ट्रो, हम अपनी स्वतंत्रता के दिन हम आपकी स्वतंत्रता के लिये प्रार्थना करते हैं। हमारा सतत महान संघर्ष था। अनेकांे वर्षों तक चलने वाला और अनेकों की बलि लेने वाला यह संघर्ष था नाटकीय संघर्ष। मुख्य रूप से यह अज्ञात लाखों वीरों का एक संघर्ष था। उस शक्ति में परिवर्तित उन स्त्रियों का संघर्ष था जिसकी वे पूजा करती हैं। वह युवकों का संघर्ष था, अचानक स्वयं शक्ति, बलिदान और आदर्शो में परिवर्तित।
आज हम दुःखों की कड़ाही से दोबारा पैदा हुए हैं। संसार के राष्ट्रो! में तुम्हें अपनी भारत माता के नाम अभिवादन करती हूँ। मेरी माता जिसकी छत पर वर्फ का छप्पर है, जीवित समुद्र जिसकी दीवालें हैं जिसके दरवाजे हमेशा तुम्हारे लिये खुले हैं। क्या तुम शरण या सहायता चाहते हो, क्या तुम पे्रम या सद्भावना चाहते हो, आओ, भारत जो कभी अतीत में मरा नहीं था जो भविष्य में अनश्वर रहेगा और संसार को अंतिम शांति की ओर ले जायेगा।“
सरोजनी नायडू का जन्म 1979 ई॰ में 13 फरवरी को हैदराबाद में हुआ। पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एवम् माता वरदा सुन्दरी की आठ संतानों में वे प्रथम संतान थी। अघोरनाथ मूलतः बंगाल के एक गाँव ब्रहमनगर के निवासी थे। वे रसायन शास्त्र के पंडित थे उन्होेंने ऐडिनबरा जाकर रसायनशास्त्र की डिग्री प्राप्त की थी। वे कट्टर ब्रह्म समाजी थे और ब्रह्म समाज के संस्थापक श्री केशवचंद्र सेन के शिष्य थे। अघोरनाथ भाषाविज्ञ थे।
उन्हें भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंगे्रजी, जर्मन, फ्रेंच और हिबू्र आदि भाषाएं भी भली प्रकार आती थी। उनका कई शिक्षण संस्थाओं से संबंध था तथा हैदराबाद काॅलेज के प्राचार्य थे। उन्होंने राजनीति में भी हाथ आजमाया। राजनीति में प्रवेश कर कांग्रेस के मेम्बर बने फलस्वरूप उन्हें हैदराबाद काॅलेज से निकाल दिया गया लेकिन इतने विद्वान आदमी को निष्कासित करने पर उन्हें अफसोस हुआ और उन्हें दोबारा प्रार्थना करके बुला लिया गया। यही काॅलेज बाद में उस्मानिया काॅलेज के नाम से जाना गया। अघोरनाथ का संबंध अनेक उच्चशिक्षण संस्थाओं से था इसलिये घर में अनेक विद्वान आते तब स्वाभाविक रूप से सरोजनी उनसे सीखती रहीं और भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का ज्ञान प्राप्त करती रहीं उन्होंने जातीय एकता का पाठ इन्हीं मेहमानों से पढ़ा।
अपने घर के वातावरण के बारे में उनके कवि भाई द्वारा लिखी पंक्तियाँ ‘ज्ञान और संस्कृति का संग्रहालय, अद्भुत लोगों से भरा हुआ चिड़ियाघर,’ इनमें से कुछ रहस्यवाद की ओर झुके हुये थे, क्यांेकि हमारा घर सबसे लिये एक समान खुला हुआ था।’ इनकी माॅं वरद सुंदरी बाग्ंला में कविता करती थीं।
ज्ञान संस्कृति और चेतना उन्हें बचपन ही में प्राप्त हो गई थी, तथा अनेक भाषाएंे धाराप्रवाह बोलना आ गया था। पिता ने उन्हें अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाना प्रारम्भ किया, क्योंकि उनकी बुद्धि चातुर्य से प्रभावित थे और चाहते थे वे कोई महान वैज्ञानिक या गणितज्ञ बनें। लेकिन भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है यह वो नहीं जानते थे, कठोरता और नीरसता के विपरीत वे कोकिल कंठी कवियत्री और राजनीतिज्ञ के रूप में उभरीं। यथार्थ से अधिक वे कल्पना लोक में विचरती थीं। उन्होंने एक स्थान पर लिखा है, ”ग्यारह वर्ष की उम्र में मैं बीजगणित के एक सवाल के ऊपर आहें भर रही थी, वह ठीक नहीं बन रहा था किन्तु उसकी जगह एकाएक पूरी कविता सूझ गई, मैने उसे लिख डाला। उस दिन मेरा कवि जीवन प्रारम्भ हो गया। तेरह वर्ष की अवस्था में मैंने एक लम्बी कविता लिखी ”ए लेडी आफ द लेक“ छः दिन में तेरह सौ पक्तियों की यह रचना लिखी तथा दो हजार शब्दों का फारसी भाषा का नाटक ‘माहेर मुनीर’ लिखा। ‘एक संपूर्ण भावनामय कृति जिसे मैंने बिना सोचे बिचारे क्षणोन्माद में ही लिखना प्रारम्भ कर दिया था वह भी केवल चिकित्सक की अवहेलना के लिये क्योंकि उन्होंने कहा था कि मैं बहुत बीमार हूँ और मुझे किताब को हाथ भी नहीं लगाना चाहिये।“
इस नाटक की कुछ प्रतियाॅं पिता अघोरनाथ ने मित्रों और रिश्तेदारों के बीच बाॅंटी एक प्रति हैदराबाद निजाम के पास भी भेजी वे उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए।
ं हैदराबाद में लड़कियों की शिक्षा के लिये कोई भी शिक्षण संस्थान नहीं था अतः उनकी शिक्षा मद्रास में हुई। उन्होंने मैट्रिक में सर्वोच्च अंक प्राप्त किये।
मैट्रिक के पश्चात कुछ दिन वे केवल कविता और गीत रस माधुरी का आस्वादन करती रही। उन्हीं दिनों डाॅ॰ गोविन्द राजलू नायडू के प्रति उनके मन में कोमल भावनाएं जन्म लेने लगीं लेकिन अघोरनाथ जानकर क्षुब्ध हो गये, उसका कारण था एक तो डाॅ॰ नायडू विधुर थे एवम् सरोजनी से उम्र में बड़े भी थे। सरोजनी की उम्र उस समय पन्द्रह वर्ष थी जबकि नायडू पच्चीस छब्बीस के थे। दूसरे वे छोटी उम्र में लड़कियों के विवाह के विरुद्ध थे, तीसरे जातिगत भिन्नता भी थी। 1895 में अघोरनाथ ने उच्च शिक्षा के लिये उन्हें लंदन भेज दिया। हैदराबाद निजाम द्वारा छात्रवृत्ति प्रदान की गई । वहाँ विभिन्न प्रकार से ज्ञानार्जन करने लगी। दो वर्ष वहाँ अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। साथ ही वे कविता लिखती रहीं । हैदराबाद निजाम द्वारा उन्हें आगे पढ़ने के लिये वजीफा दिया गया। प्रेम का अंकुर लंदन प्रवास के दौरान और पुष्ट हो गया।
लंदन से लौटकर विवाह की चर्चा चली और सरोजनी ने अपना निश्चय सुना दिया कि वह डा॰ गोविन्द राजलू नायडू से ही विवाह करेंगी। अंत में उनके माता-पिता को उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति के आगे झुकना पड़ा और दो सितम्बर 1898 को विवाह डाॅ॰ गोविन्द राजलू नायडू से हो गया।
प्रेम सुख शांति के मध्य वे अपनी जिन्दगी जी रही थीं। उनके चार संतान हुई, जयसूर्य, पद्या, रणधीर एवम् लीलामणि। साथ ही उनकी काव्य निर्झरणी बहती रही, और सरोजनी का नाम अंग्रेजी काव्य जगत में बड़े आदर से लिया जाने लगा।
सन् 1902 में सरोजनी नायडू गोपाल कृष्ण गोखले के संपर्क में आई और उनकी अनन्य भक्त हो गई। उन्हें गुरू रूप में श्रद्धा के पुष्प अर्पित करती थीं, उनके गुणों का प्रभाव उन पर पड़ा । उससे वे सदा आप्लावित रहीं। 1905 में उनकी काव्य कृति ‘गोल्डन थ्रैसहोल्ड’ प्रकाश में आई । गाँधी जी से सरोजनी नायडू की मुलाकात 1914 में द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भिक दौर के समय हुई। गोखले और सरोजनी लंदन में थे। गाँधीजी को महात्मा की उपाधि मिल चुकी थी। वे दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों के लिये लड़ रहे। गोखले ने उन्हें लंदन आने के लिये आमंत्रित किया जहाँ अंग्रेजी सरकार को देने के लिये स्मृति पत्र तैयार करना था। सरोजनी नायडू ने लिखा है ”आश्चर्य की बात है महात्मा गाँधी से मेरी मुलाकात 1914 के यूरोपीय महायुद्ध शुरू होने के ठीक पहले लंदन में हुई। जहाँ उन्होंने सत्याग्रह के सिद्धान्त का श्री गणेश किया था और अपने देश वासियों के लिये, जो कि उस समय ऋणी बंधुआ मजदूर थे, के लिये विजय प्राप्त की।“
प्रथम दर्शन में सरोजनी नायडू अवाक् थी कि इस व्यक्ति में ऐसा क्या है जो सब उन्हें आदर और श्रद्धा से महात्मा कहते हैं, परन्तु जैसे-जैसे उनके परिचय की गति बढ़ी वे स्वयं उसी श्रद्धा में डूब गई और भारत लौटने पर जगह-जगह जनता को गाँधीजी के संदेश सुनाने लगी। गाँधीजी के संदेशों के माध्यम से सरोजनी नायडू भी जनता में जानी जाने लगीं। गाँधीजी के लंदन से वापस आने के बाद उनके हर कार्य को बढ़ाने में सहायता करने लगीं। 1918 में बम्बई के कांगे्रस अधिवेशन में ‘जागो शक्ति’ कविता सुनाकर अपना ध्यान आकर्षित कर लिया। उन्होंने कुशलता से राष्ट्रीय आंदोलंनों का नेतृत्व किया। गाॅंव गांव घूमकर देश प्रेम का संदेश जन जन के बीच पहुॅंचाती रहीं । वे बहुभाषाविज्ञ थी। प्रदेश और क्षेत्र के अनुसार उनकी भाषा में भाषण देतीं। उनके व्यक्तव्य जन मानस को झकझोर देते थे । 1925 में वे कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षा बनीं और 1932 में भारत की प्रतिनिधि बनकर दक्षिण अफ्रीका गईं
1919 में अंग्रेजी सरकार ने रौलेट एक्ट पास किया। गाँधी जी के साथ-साथ सरोजनी नायडू ने भी जगह-जगह घूमकर उस एक्ट का विरोध किया। और बड़ी-बड़ी सभाओं में भाषण देकर उस एक्ट का विरोध किया। जलियाँवाला बाग कांड के बाद गाँधीजी ने असहयोग आंदोलन प्रारम्भ किया। लेकिन साथ ही हिंसा भी तांडव करने लगी। चैराचैरी में थाना जलाया गया। पिं्रस आफ वेल्स के आगमन पर हिंसा भड़की और दंगाइयों ने खून की नदियाँ बहा दी। सरोजनी नायडू ने उन दिनों बहुत साहस और धीरज से काम लिया। वे दंगाइयों के बीच घुस जातीं ओर पीड़ितों की सहायता करतीं। घायलों को अस्पताल भिजवातीं। महात्मा गाँधी सरोजनी नायडू के त्याग और सेवाओं से अत्याधिक प्रभावित थे। उन्होंने वेलगाँव कांग्रेस अधिवेशन में कहा था ‘ सरोजनी एक ऐसी स्त्री है जिसे मेरा स्थान लेना है। ’
गाँधीजी जब जेल में थे उनके आदेश पर धरसाना जाकर नमक भंडार पर अधिकार करना था। उन्हें वहाँ नमक कानून तोड़ने पर जेल की सजा दी गई। 1942 में भारत छोड़ो प्रस्ताव के पास होने में गांँधीजी के साथ सरोजनी नायडू को भी आगा खाँ महल में बंद किया गया।
देश के लिये कार्य करते हुए साहित्य रचना के लिये भी समय निकाल लेती थी और अपनी मधुर वाणी से जनता में नया मंत्र फूंक देती। जो उन्हें सुनता मंत्र मुग्ध हो जाता। उनकी वाणी में रस था ओज था माधुर्य था। वाणी में वाग्देवी फूट पड़ती थी और रस निर्झरणी वह उठती थी। वे भारत की कोकिला नाम से जानी जाती थीं। स्वयं गाँधीजी उन्हंे भारत कोकिला और हिन्दुस्तान की बुलबुल कहते थे। उनके ‘समय के शब्द ’ और ‘टूटे पंख’ नामक काव्य संग्रह प्रकाशित हुए ।
श्रीमती नायडू को भाषण देने के लिये कभी तैयारी नहीं करनी पड़ी। अपने लिये तैयार भाषण भी कभी पढ़ कर नहीं दिये। 1947 में लाल किले ‘ऐशियाई सम्बन्ध सम्मेलन’ आयोजित किया गया। सरोजनी नायडू सम्मेलन की अध्यक्षा चुनी गईं । अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा ”आप लोग जो गहरी पहाड़ी, घाटियों से चलकर रंगीन समुद्रों की विशाल छातियों पर तैरकर प्रभात और अंधकार के बादलों पर सवार होकर आये हैं उनमें से कितने इस बात को समझते हैं कि आज यहाँ हम एशिया के हृदय में ही नहीं बल्कि भारत के दिल की गहराई और केन्द्र में खड़े हैं। यहाँ एशिया की एकता का अविनाशी वचन के लिए एकत्रित हुए है जिससे कि विध्वंसों के बीच की दुनिया केा पीड़ा दुःख शोषण कठिनाई गरीबी, अज्ञान, विपत्ति में और मौत से छुड़ाया जा सके।
1949, 2 मार्च को सरोजनी नायडू ने इस संसार से विदा ली और एक कोयल की कूक शांति से सो गई। आज भी सरोजनी नायडू जन्म दिवस ”महिला दिवस“ के रूप में मनाया जाता है। 13 फरवरी 1964 को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में 15 नये पैसे का एक डाक टिकिट जारी किया ।