Saturday, 12 July 2025

cheen ke ve das din 17

 होटल रीगल इम्पीरियल हॉगकॉग के पुराने बाजार में बना था। यहाँ सामने सब देशों की घड़ियाँ लगी थी। लाउंज में बैठने के लिये मात्र दो बेंच थी और यात्री बहुत थे। हर देश के यात्री थे। वहाँ पर भारतीय भी बहुत दिख रहे थे। काउंटर पर यद्यपि चीनी लड़कियाँ थी पर वे इंगलिश बोल लेती थी। इसलिये वार्ता में अधिक परेशानी नहीं हो रही थी। बस सामान स्वयं ही ढोना था। और लिफ्ट में रखकर चौथी मंजिल पर ले जाना था। वहाँ पूछा क्या वेटर नहीं ले जा सकते तो पता

 लगा प्रति नग दो डालर अर्थात् 70 रु0 लगेंगे तो एक-एक कर सब नग अपने आप ही पहुँचा दिये। उस समय कहीं दूर जाने का तो समय नहीं था। होटल में चाय बनाने की जिम्मेदारी श्रीमती किरन महाजन की थी। सो पी गई। चाय पीकर फ्रैश होकर लाउंज में एकत्र होकर निश्चय किया कि यहाँ आस-पास का बाजार देखा जाये तथा वहाँ इंडियन खाना मिल जायेगा  कि नहीं देखा जाये। हिम्मत करके हम चार यानि मैं शैलबाला किरन महाजन और डा॰ राजकुमारी शर्मा  चल दिये। यह हम लोगों का नियम था कहीं जाते सब कमरों में झांक झांक कर पूछ लेते कि कोई और चलेगा । मनोरमा दीदी  चादर ओड़ कर लेटी थीं‘मेरी तबियत ठीक नहीं है मैं कहीं नहीं जाउंगी।’ हॉंगकांग में भाषा सब तरह की बोल लेते हैं हिंदी भी बोलने वाले और हिन्दुस्तानी बहुतायत में हें इसलिये किसी प्रकार का खतरा नहीं लगा। हर मोड़ और स्थान को ठीक से देखते जा रहे थे। सामने सड़क पार करके पंक्तिबð बाजार था एक आम बाजार जिगजैग आकार में था एक बाजार से घूम कर दूसरे बाजार में जाया जा सकता था। चौड़ी सड़क और वन वे थी । दोनों तरफ हर सामान की दुकान थी। चलते चलते एक विशाल मॉल दिखाई दिया अगर अंदर गये तो समय लग जायेगा नौ बज चुके थे इसलिये रास्ता अच्छ ीतरह देख वापसी का रुख किया । एक होटल देखा जहॉं भारतीय खाना था पंजाब का रहने वाला उसका संचालक था । बढ़िया रहेगा  इस में खाया जायेगा पता लगाया जाये कौन कौन बाहर खाना चाहता है तब आया जायेगा । एक एक चिन्ह देखते होटल आये पर वहॉं सब आराम के मूड में थे रैस्टोरेंट जाने का उत्साह गायब हो गया और अपने अपने सामान में से खाने का सामान निकाल कर चाय के साथ खाया गया।पूरे दिन की समीक्षा तो की ही जाती थी  अरस्तू शशांक  सोने से पहले देख लेते थे कि सब ठिकाने पर हैं या नही,‘ आंटी लोगो  अब सोओ  सुबह नहीं उठना इतने बजे तैयार रहना है ’ । 

दूसरे दिन प्रातः नैन ब्लूइंग पार्क गये पर्ल नदी के किनारे बना पार्क बहुत व्यवस्थित था। तथा फूलों की अनेक प्रजातियाँ थीं कुछ फूल नये भी दिख रहे थे। कुछ आगे चलकर बत्तख आदि थीं। नावें भी थीं जिनमें वोटिंग की जा सकती थी। यहाँ पर भी बूँदों ने स्वागत किया पर सहन करने योग्य थी। वहीं से हम रिपल्शन बीच के लिये गये वहाँ पर सैलानी तैरने के लिये आते हैं एक आम सा बीच था। शार्क का खतरा रहता है इसलिये कुछ हिस्सा पीली जाली से बांध दिया गया है वहीं तक तैराकों को जाने की इजाजत है उससे आगे नहीं। यहाँ पर बूँदों ने घार का रूप ले लिया कुछ के पास बीजिंग में खरीदे छाते थे एक-एक दो-दो साथ-साथ जाकर बस तक वापस आये।

आगे विक्टोरिया पीक गये। इस पीक को तीन नाम से पुकारा जाता है विक्टोरिया पीक, फ्लैग होलिस्टिक पीक व वान चुई पीक। विक्टोरिया पीक पर जाने के लिये वहाँ से सुप्रसि( रोप वे से जाना होता है इसे हिडोलों का मेला भी कहा जाता है क्यांेकि कई-कई ट्रालियाँ मोटे-मोटे तारों पर लटकती चलती रहती है। वहाँ से हॉगकॉग की बिखरी प्राकृतिक संपदा दिखाई दे रही थी। चारों ओर हरियाली के बीच में जैसे सीमेंट के वृक्ष बिल्डिंग के रूप में उगे हो ‘शाम चुन चुन’ नदी का विहंगम दृश्य दिखाई दिया। उसमें व्यापारिक जहाज खड़े थे। पीक को पर्यटन विभाग ने पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर दिया है। खूब खाने-पीने के स्टॉल लगे हुए थे लेकिन सबने चिप्स आदि ही लिये और शेयर करते खाते घूम-घूम कर हॉगकॉग का सौंदर्य निहारा, विश्व का एक सुंदरतम द्वीप समूह, हृदय को स्तब्ध कर देने वाला दृश्य एक तरफ शीशे की बिल्डिंग वाला आधुनिकतम शहर दूसरी तरफ विशाल समुद्र जैसे मैदान है।यह पीक अपनी रंग-रूप दिन में सूर्य की रोशनी के आधार पर बदलती रहती है रास्ते में उस व्यक्ति का मकान दिखा जिसने कार का 8888 नम्बर प्राप्त करने के लिये 20 वर्ष पूर्व 8 मिलियन डालर दिये थे।

वैंडी से हमने आग्रह किया दोपहर के खाने के लिये ऐसे स्थान पर ले चले जहाँ हमें भारतीय खाना मिल जाये साथ ही अपने मतलब की खरीदारी करलें । उसने हमें वहाँ के प्रसि( इंडियन बाजार में छोड़ दिया। बस का सफर हमारे लिये इतना ही निश्चत था। आगे का साधन हमें ही बनाना था। बस हमें यह कहकर छोड़ गई कि वो दूसरे दिन अर्थात् तेरह जून की शाम को 6 बजे हमें लेने आयेगी। 

देखने में पुराने ढंग का बाजार था। बाजार क्या पुरानी कई मंजिला बिल्डिंग मे पास-पास दुकानें थी। जैसे मुंबई के भूलेश्वर का बाजार हो वहीं 3 मंजिल पर ढाबा था हांगकांग के इंडियन बाजार में सम्राट इंडियन ढाबा बताया तो लगा वास्तव में इंडिया का बना खाना मिल जायेगा।लिफ्ट से ऊपर चार-चार व्यक्ति जा रहे थे लंबी लाइन थी पूरी बहुमंजिला इमारत में जितनी भीड़ थी उतनी लिफ्ट नहीं थी। जीने भी थे पतले अंधियारे भरे। उस समय इतने थके हुए थे। कि जीने से जाने की हिम्मत नहीं हुई।  बिल्कुल साधारण कुर्सी मेज वाला फटका मार्का ढाबा था लेकिन सरदार जी ने हमारा बहुत अच्छे से स्वागत किया यद्यपि दोपहर के भोजन के बाद वहाँ भोजन समाप्त हो गया था और चाय का समय प्रारम्भ हो गया था लेकिन सरदार जी ने तुरंत हमारे लिये रोटी माह की दाल, टमाटर आलू की सब्जी व चावल तैयार कराये।उस समय महसूस हुआ कि भारतीय खाने में कैसी तृप्ति है। जिव्हा और पेट और आत्मा सब तृप्त हो जाते हैं नही तो जैसे अधूरेपन का एहसास होता है। मनोरमा जी की तबियत कुछ ढीली हो रही थी। इसलिये उन्होंने कुछ खाया नहीं था। लेकिन हमारे साथ-साथ पूरा बाजार घूमा। सामान सही मिल रहा था। डर भी था कहीं नकली सामान नहीं हो लेकिन सब सामान बहुत ठीक निकला चाहे मेकअप का सामान हो चाहे इलैक्ट्रानिक सामान दाम भी बहुत बाजिब थे।अधिकांश दुकानदार भारतीय थे। पाकिस्तानी, चाइनीज,और तिब्बती भी थे ।कहीं बड़े बड़े डिब्बों में कपड़े रखे थे तो पंक्ति से इलैक्ट्रोनिक सामान की दुकानें थीं।घूमते-घूमते सब अलग-अलग हो गये थे किसी को कहीं कुछ पसंद आ रहा था किसी को कहीं कुछ। निश्चय यही किया कि सब होटल पहुँच जाय।पहले सबने उसी बाजार में शापिंग की उसके बाद उसके सामने बाजार में शापिंग की वहॉं का बाजार बिलकुल सदर बाजार सा था और एक एक वस्तु की एक एक दुकान थी अब लौटने का समय हो रहा था इसलिये शापिंग भी जरूरी हो गई थी।

मैं ,शैलबाला एवम् किरन महाजन होटल के लिये निकले। हमने वहाँ पूछा होटल रीगल कहाँ से जायें तो वहाँ लोगों ने बताया करीब आधा किलोमीटर दूर है आप पैदल जा सकती हैं। बस एक बाजार पार कर मोड़ है वहाँ से सामने ही रीगल है।

हम लोग पैदल चल दिये पूछते-पूछते कई मोड़ निकल गये अंत में बहुत पॉश और खुला स्थान आ गया। लगा चक्करघिन्नी हो जायेंगे क्योंकि हमारा होटल तो पुराने बाजार में था, जैसे चाँदनी चौक के स्थान पर इंडिया गेट पहुँच गये हो वहाँ सामने बताया होटल रीगल है था तो होटल रीगल ही लेकिन वह होटल रीगल इंटरनेशनल था बाहर से ही देखने से समझ गये हम भटक चुके हैं क्या किया जाये पहले तो पता लगाया जाये कि आखिर हम कितनी दूर हैं ।यह हमारा होटल नहीं है होटल इंटरनेशनल सात सितारा होटल था। हमारे होटल की ही शाखा। थक तो रहे थे  होटल के सामने पार्कनुमा स्थान था गोल गोल घास और फूलों के  स्थान से बने थे एस पर बैठ गये  जब जरा सांस आई तो वहाँ हमने अंदर पहुँच कर उनके मैनेजर से बात की और आग्रह किया कि हमें होटल रीगल इम्पीरियल के लिये टैक्सी मंगा दें। उन्होंने हमें आश्वासन दिया और अपने होटल की टैक्सी से हमें होटल रीगल इम्पीरियल भेज दिया। कम से कम पन्द्रह किलोमीटर दूर वह होटल था बाहर से देखते ही शांति मिली चलो ठीक-ठाक पहुँच गये। अपने इस अभियान को चुपचाप दबा गये नहीं तो संभवतः सब चढ़ पड़ते कि बहुत होशियार मत बनो ठीक-ठाक वतन पहुँचो।

चाय पीकर हमने अन्य साथियों को देखा कुछ आकर आराम कर रहे थे कुछ अभी नहीं आये थे। पिछले दिन हमने पास के बाजार में बहुत विशाल आधुनिकतम मॉल देखा था दूसरे दिन वापस भारत के लिये आना था। इसलिए वहॉं पर देखे विशाल मॉल की ओर चल दिये हमारे साथ डॉ॰ राजकुमारी शर्मा भी थी। पाँच मंजिल के मॉल में हर मंजिल पर अलग-अलग सामान मिल रहा था। समय बचत के लिये हमने निश्चय किया  यदि खरीदारी में आगे-पीछे हो जाये तो मेन गेट की सीढ़ियों पर मिलेंगे। यद्यपि मॉल इस ढंग का था ऊपर से देखने पर हर मंजिल का व्यक्ति दिख रहा था। एक स्थान पर हम सब अलग-अलग हो गये और ऊपर-नीचे करते सामान देखते मिलते गये अंत में जब थक गये तब हम तीन तो एक-एक कर सीढ़ियों पर आ गये लेकिन डॉ॰ राजकुमारी शर्मा का कहीं पता नहीं चला हम बार-बार मॉल के अंदर गये जाकर देखकर आते एक जगह वो दिखाई दी हमने आवाज लगाई लेकिन उन्हें नहीं सुनाई दिया जब तक हम उतरकर वहाँ पहुँचें वे गायब हो गई। करीब एक घंटा हमें बैठे हो गया तब हमने सोचा सड़क पर खड़े होकर देखते हैं हम जैसे ही सड़क पर आगे बढ़े डॉ॰ राजकुमारी शर्मा आती दिखाई दीं । एक से दरवाजे होने की वजह से वो दूसरे गेट पर पहुँच गईं थी। खैर ‘अंत भला सो सब भला’ भगवान का धन्यवाद दिया बिछड़े साथी से मिलना उस समय कितना सुखद लगा बयान नहीं किया जा सकता। अंदर जो भय ठहर गया था काफूर हो गया और चुहल करते हुए एक इंडियन होटल में नॉन, सब्जी आदि खाते होटल पहुँचे। भटकने का दिन समाप्त हुआ। तब तक सब साथी आ चुके थे। वंदनी नंदनी, चित्रलेखा जी आदि की कुछ बातें बहुत अक्ल देने वाली थी। कभी भी ऐसे देश में जहाँ हमें लगे खाद्य-पदार्थ आसानी से उपलब्ध नहीं होगें पैक्ड खाना ले जाना चाहिये वे लोग उपमा आदि के पैकेट ले गई थी। एकदम गर्म पानी तो चाइना में पीने के लिये हर होटल में रहता ही था वे उसे डालकर अपना भोजन तैयार कर लेती थी। इसलिये उन्हें अधिक भोजन के लिये नहीं भटकना पड़ा था।


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