होटल पर सभी यात्री वापस आ चुके थे खाना भी तैयार था खाने में इटैनियन पास्ता आदि था । खाने के बाद कुछ देर सबने अपनी थकान मिटाई । कुछ बाजार निकल गये और हॉल में मिलने का समय रखा गया सात बजे जहॉं आगे का कार्यक्रम के विषय में बताया जायेगा ।
निलायम् प्राकृतिक रूप से बहुत खूबसूरत है स्वयं होटल ऊॅचाई पर स्थित था । बादल जैसे हम से हाथ मिलाने को आतुर थे । सात बजे हम हॉंल में पहुॅंचे । प्राचीन ष्शैली का बना लकड़ी का हॉल । बड़ी बड़ी लकड़ी की मंजूषाऐं रखी थीं वे मंजषाऐं जो राज धरानों में होती थी महीन पच्चीकारी का काम था । प्राचीन भारत की याद तरोताजा करतीं लकड़ी की आलमारियॉं । पुराना कालीन यद्यपि रंगत खो चुका था पर अपने वैभव की कहानी कह रहा था कि कभी यह भी ईरानी सौदागर लाये होंगे और इन पर न जाने किन किन हस्तियों के पद चिन्ह पडे़ होगे । बेहद सुंदर चित्रकारी थी कालीन की पैरों ने उस सुंदरता को रौंदने से पहले एक बार सराहा जरूर होगा । चारों ओर खस्ता हॉल सोफा था गद्दियों में गर्द इतनी जमा हो गई थी कि जम कर पथरीली हो गई थी । सवा सात तक आठ यात्री ही एकत्रित हुए गणपति वंदना के साथ भजन प्रारम्भ हुए अधिकांष भजन षिव पर आधारित थे । आठ बजे तक बीनू भाई व अन्य कुछ लोग आ गये दूसरे दिन सागा जाना था ।
सागा की यात्रा 230 किलो मीटर है और ऊॅचाई अठारह हजार फुट समुद्रतल से है । यह यात्रा का सबसे कठिन मार्ग है । सारा रास्ता बेहद ऊबड़ खाबड़ है कभी सीधी खड़ी चढ़ाई दसपन्द्रह फुट की है तो फिर एकदम गहरी उतराई । गाड़ी हिचकोले लेती बढ़ रही थी । जगह जगह छोटी छोटी नदियॉं । दूर दूर तक लगता इंसान या जीव नाम की कोई चीज ही यहॉं नहीं है किसी प्रकार के चिड़िया या जानवर भी नहीं दिखाई दिये हॉं कभी कभी याक और बकरियॉं दिख जाती थीं । याक बड़े बड़े झबरीले बालों वाला भैंस से कुछ छोटा जानवर है । पहाड़ दूर पर थे लेकिन रास्ता पथरीला पहाड़ी था
बीच बीच में छोटी छोटी नदियॉं थीं । एक स्थान पर चौड़ी पहाड़ी नदी पार करनी थी उस समय नदी में पानी कुछ ज्यादा आ गया था एक निष्चित स्थान से नदी पार कर रहे थे हमारा ड्राइवर एकदम एक्सपर्ट था उसने एक बार में नदी पार करली पानी दरवाजे तक आ गया था । कुछ देर रुके उस चंद्राकार नदी के कलकल नाद को सुना देखते देखते नदी में कुछ पानी और बढ़ गया ।उफ बस कुछ क्षण ही थे नही ंतो नदी पार करना मुश्किल होता, नदी पूरी नवयौवना लगने लगी ।
सारी यात्रा में रसोई पकाने वाले शेरपा दोपहर का भोजन सुबह ही पका कर बड़े बड़े स्टील के कैसे रोल में भरकर चलते थे । खाने के लिये रुकते और घड़ घड़ करके कैसरोल लेकर शेरपा पंक्तिबध्द बैठ जाते कागज या थर्माकोल की प्लेटों में खाना देते जाते । जैसे जैसे ऊचाई पर जाते जा रहे थे खाने से अरुचि होती जा रही थी । प्रातः ही सबके लिये दो दो बोतल गर्म पानी दे दिया जाता सब अपनी अपनी बोतलें भरकर साथ रखते थे । ठोस आहार से अरुचि हो रही थी लेकिन पेय पदार्थ या फल बहुत अच्छे लग रहे थे । और कुछ मुॅह में चल ही नहीं पारहा था संभवतः प्रकृति ने इसीलिये पहाड़ों पर तीर्थों पर साधु संतों का भोजन अन्न के स्थान पर फल कंदमूल आदि रखा इसका यही कारण होगा । भोजन के साथ फल जूस आदि भी उपलब्ध कराये जाते थे । बीनू भाई कई बार यात्रा कर चुके थे और जानते थे यात्रियों के लिये क्या अच्छा है क्या बुरा इसलिये जोर देकर खाना खिलाते थे सबकी तष्तरियों पर नजर रखते थे यात्रा पूरी
करनी है तो खाना अवष्य है कैसे खाया जाये ,कुछ समझ नहीं आता था किसी प्रकार कुछ गस्से सटके जाते थे ।
पहाड़ों से बहते झरने तो दिखते थे लेकिन हरियाली कहीं नजर नहीं आती थी। हरियाली के नाम पर कहीं कहीं जरा जरा सी गोलाकार वनस्पति उगी हुई थी एकदम कड़ी कड़ी सी इसकी वहॉं पर सब्जी बनाकर खाई जाती है उसमें गुलाबी या बैंगनी रंग के छोटे छोटे फूल खिले थे , इसे वहां पहाड़ी प्याज कह रहे थे । स्थानीय लोगों ने बताया वे सूखने के बाद भी वैसे ही रहते हैं
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