Saturday, 21 June 2025

cheen ke ve das din 2

संभवतः युवा पीढ़ी हर प्रकार के धर्मों से अप्रभावित रही। अब का चीनी किसी धर्म को नहीं मानता। अब यथाथर््ा उनका मुख्य लक्ष्य है उसमें तकनीकी ज्ञान, भौतिक ज्ञान, वैज्ञानिक ज्ञान के लिये अधिक स्थान है।

चीन अलग  सा है अगर दूसरे शब्दों में कहा जाय तो चीन के चेहरे अलग अलग हैं,वह कई संस्कृतियों के विरोधाभास भरे जीवन से गुजरा है । उसने विश्व स्तर पर सहयोग और संघर्ष ,देशप्रेम के साथ साथ उग्र राष्ट्रवाद भी देखा है। वह विश्व के लिये एक चेलैंज है। उसने डालर की शक्ति को मेहनत से दबा दिया। विश्व शक्ति, में चीन का अब एक महत्त्वपूर्ण स्थान बन चुका है विश्व के लिये उठाये जाने वाले कदम बिना चीन की सलाह के उठाना मुश्किल होगा क्योंकि चीन विश्व के लिये उदाहरण बन चुका है।

    शांति सेना का स्वास्थ शिविर चल रहा था ,मरीज देखे जा चुके थे,और सब सदस्य बैठे थे कि डा॰ मनोरमा शर्मा ने कहा  ‘हम लोब चीन चल रहे हैं ,कौन कौन चलना चाहेगा?’

चीन! चीन क्या चलने की जगह है । चीन के विषय में मन में सदा असमंजस रहा है कारण उसके विषय में कहा जाता रहा है कि चीन विदेशियों के प्रति नम्र नहीं है । उसके नियमों के खिलाफ कुछ भी हो जाये तो सीधे जेल,व्यक्ति सूरज भी नहीं देख पाता । पर यह सब संभवतः सन् 1962 के  युð के बाद प्रचारित बातों से है। कुछ देर असमंजस की स्थिति रही । एक बार घर में भी पूछना पड़ेगा क्योंकि अभी तक अकेले और वह भी सीधे विदेश यात्रा पर नहीं गई थी। कुछ ने तो अपना नाम लिखा दिया पर मनोरमा दीदी के यह कहने पर कि क्यों शशि तुम क्यों चुप हो ... चलना है.... बस ’ मुझे कुछ भी कहने से रोक दिया। 

धर में आकर मैंने पूछा नहीं एलान कर दिया,‘ मैं चीन जा रही हॅंू’

‘चीन ... वह कोई जाने की जगह है वहॉं क्या है?

‘है तो कहीं कुछ भी नहीं जाने का मौका मिल रहा है तो चले जाते हैं यह निश्चय है कि घर से कोई चीन केवल घूमने के लिये नहीं जायेगा ।’

      और इस प्रकार स्व॰ मनोरमा शर्मा के नेतृत्व में हम चौदह लोग चाइना के लिये उत्साह से चले एक संदेश लेकर, मैत्री संदेश, हिन्दी चीनी भाई-भाई का संदेश। आगरा की बेटी अर्चना जयधारा डब्लू. एस. एफ. की सदस्या जिसने डब्लू. एस. एफ. के संदेश चाइना में भी प्रचारित किये उसने शाउसिन में एक स्कूल खोला है। विशेष रूप से बच्चों के लिये, ऐसे बच्चे जिनके माँ-बाप चीन में कार्य करते हैं। जब वे लौटकर भारत आयेेंगे अपने वतन, तब बच्चों की शिक्षा यहाँ से बिलकुल अलग होगी तब किस प्रकार वे अपने को यहॉं मिला पायेंगे। स्वयं अपनी बेटी की पढ़ाई की उसे चिन्ता थी। उसने साहस किया। वहाँ चीन के अधिकारियों एवम् भारतीय अधिकारियों से मिलकर एक स्कूल खोलने का प्रयास प्रारम्भ किया और वह सफल भी हुई। चंद वर्षों में उसका स्कूल भारतीय लोगों के साथ-साथ चीनी लोगों में भी लोकप्रिय होता गया और एक प्रतिष्ठित स्कूल बन गया। 

    डब्लू.एस. एफ द्वारा आमंत्रित भारतीय दल के स्वागत का कार्यक्रम अर्चना जयधारा ने अपने स्कूल के वार्षिकोत्सव में रखा। हम चौदह सदस्य थे स्व. डॉ॰ मनोरमा शर्मा, डॉ॰ राजकुमारी शर्मा, डॉ॰ चित्ररेखा सिंह, डॉ॰ सरोज भार्गव, श्रीमती किरन महाजन, डा॰ शैलबाला अग्रवाल, श्रीमती रजनी भार्गव, श्रीमती नंदनी, कु॰ वंदनी, श्रीमती सरोज गौड़, श्री अरस्तू प्रभाकर, श्री शशांक प्रभाकर, मास्टर ओशो प्रभाकर व स्वयं मैं । दोपहर दो बजे तक हमारे हाथ में टिकिट नहीं थे। यद्यपि हमारे ट्रेवल ऐजेंट श्री प्रशांत हमें बार-बार कह रहे थे ‘ मैं आपको रात्रि की फ्लाइट में बैठा दूँगा। हमारा आदमी आप तक पहुँचता ही होगा।’ एक-एक कर हम टिकिट और रुपये एक्सचेंज के लिये श्रीमती किरण महाजन के यहाँ एकत्रित हो गये। दिल्ली के लिये टैक्सी में सामान लद चुका था। 4 बजे एक व्यक्ति प्रगट हुआ औेर हम आठ लोगों की टिकिट और रुपये एक्सचेंज किये लेकिन अभी मनोरमाजी सपरिवार घर पर इंतजार कर रही थी। गुड़गाँव में डॉ॰ सरोज भार्गव व रजनी भार्गव हमारा इंतजार कर रही थीं। हमें उनके घर पहुँचकर उन्हें लेकर एअरपोर्ट जाना था।हमारी बेचैनी समझी जा सकती है । घर से विदा ले ली थी सामान लदा था पर हाथ में टिकिट ही नहीं ,अ्रगर लौट कर घर जाना पड़ा तो बहुत मजाक बनेगा।न जा पाने से अधिक इस बात की फिक्र थी कि सब खिल्ली उड़ायेंगे ।

मैं श्रीमती शैलबाला, डा॰सरोज भार्गव श्रीमती सरोज गौड़ व श्रीमती किरन महाजन हम सब एक इनोवा गाड़ी में बैठकर दिल्ली के लिये रवाना हो गये। रास्ते में पलवल ढाबे पर चाय व पकौड़े खाये पर साथ-साथ अन्य सबका हाल-चाल ले रहे थे अभी तक मनोरमा जी की टिकिट नहीं आई थी अगर समय पर उनकी ही टिकिट नहीं हुई तो क्या होगा।उस समय एक यक्ष प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ा था।हम सबके फोन उस समय या तो बज रहे थे या हम बजा रहे थे वैसे बजा हम   ही रहे थे  क्योंकि हम ही दिल्ली के लिये रवाना हो चुके थे सबसे अधिक नाजानकारी हमें ही थी । डॉ॰ राजकुमारी शर्मा पहले दिन ही नोएडा पहुँच चुकी थी वहॉं उनके पुत्र हैं । उनकी टिकिट भी मनोरमा जी के साथ आनी थी। लेकिन साढ़े छः बजे मनोरमाजी को भी टिकिट मिल गई वे तुंरत दिल्ली के लिये रवाना हो गईं। मोबाइल की उपयोगिता उस दिन अच्छी तरह समझ में आ गई थी ।पल पल की खबर थी हमारे पास । उस दिन पुराने वे दिन याद आये जब एक एक कॉल के लिये सारा 


दिन टेलीफोन पर बैठे ही बीत जाता था । आठ बजे हम रजनी जी के घर गुड़गाँव पहुँच गये जैसे ही उतरे बड़ी बड़ी बूंदों ने हमारा स्वागत किया ‘ अरे! मारे गये ’ मुॅह से निकला क्योंकि स्थान पर तो पहुॅंच गये थे पर कोठी ढूंढना बाकी था,ऐक गलत मोड़ दिशा बदल देता है,अंधेरे में ढूंढना अधिक मुश्किल है। खैर मोबाइल निर्देश ने मार्ग सही करा दिया और ठीक स्थान पर पहुॅंच गये। रजनी जी डॉ॰ सरोज भार्गव की बहन हैं। सुंदर सुव्यवस्थित घर। अंदर आने का मार्ग हरियाली से घिरा दोनों तरफ सुंदर फूलों के गमले सजे थे।


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