दोपहर को सब फिर एक कमरे में एकत्रित हुए तरह तरह के अनुभव लोकगीत चुटकुले हास्य कविताओं का दौर चल ही रहा था कि महेन्द्र भाईसाहब और बीनू भाई बदहवास से आते दिखाई दिये दिल धक से रह गया क्या गोयल साहब भी हैं पर और कोई नहीं दिखा जब तक बात सामने न आये दिल बस भोले बाबा को याद कर रहा था बस सब कुछ कुषल ही हो । महेन्द्रभाई साहब लंगड़ा रहे थे। पता चला महेन्द्र भाई साहब का घोड़ा नया था उसने उन्हें पटखनी देदी । बीनू भाई की भी तबियत बिगड़ गई थी इसलिये दोनों वापस आ गये । मल्हम आदि लगा कर महेन्द्र भाईसाहब के क्रेप बैन्डेज बांधी और बुखार की दवा दी । वे लेट गये पूछा और सब का कैसा चल रहा है । पता चला रात भर तेज पानी पड़ा था जल थल सब एक हो गया था ,‘हे भगवान् तेरे दर पर हैं सबकी रक्षा करना ’ जब सब कुछ ठीक होगया तब बीनू भाई ने बताया,‘जब चले थे पानी थम गया था और आगे यात्रा प्रारम्भ हो गई थी । पहले दिन सारे रास्ते पानी रहा था और रात भर तेज वारिष हुई बिस्तर एक तरह पानी में तैर रहा था छोटे छोटे तम्बुओं में एक में दो व्यक्ति थे और पहाड़ी पर से ठंडा पानी बह रहा था पर प्रातः जब वे वापस आने के लिये चले तब पानी ठहर गया था और परिक्रमा वाले यात्री आगे बढ़ गये थे ।
एक बार फिर सभा प्रारम्भ हो गई इस बार हास्य कविताओं का दौर प्रारम्भ हुआ। अंकलेष्वर की कमला बहन हस्तरेखा पढ़ना जानती थीं वे सबका हाथ देखने लगीं साथ साथ सुनने सुनाने का दौर भी चल रहा था । एक बात बार बार मन में कौंध रही थी चार बार यात्रा करके आये बीनू भाई जब आगे नहीं जा सके तो बाकी के सब कैसे जायेंगे और फिर जब दल का मुखिया वापस आ गया तो बाकी सबका ध्यान कौन रखेगा वैसे अवतार बहुत बार जा चुका था परिक्रमा का गाइड एक बीस बाईस साल का लड़का था वह चौदह बार परिक्रमा कर आया था।
प्रातः 12 बजे तक यात्रा वापस दारचेन से आठ किलोमीटर आगे से आनी थी । हम लोगों ने सभी सामान पैक किया दारचेन को अलविदा कहा और गाड़ियों में भरकर परिक्रमार्थियों को लेने चल दिय । आने वाले यात्रियों के लिये नाष्ता साथ लिया उस दिन तरह तरह के पकौड़े बने थे क्यों कि बीनू भाई ने बताया था कि यात्रा का अंतिम पड़ाव है और वहॉं नाष्ता नहीं खोला गया होगा ।
जिस स्थान पर हम रुके वह पर्वत के पास खाली स्थान था वहॉं सब गाड़ियॉं खड़ी हो गईं कुछ अन्य गाड़ियॉं भी थी उनके यात्री भी अपने सह यात्रियों का इंतजार कर रहे थे दूर से कलकल करती नदी बहती आरही थी पर्वतीय मोड़ से एकाएक परिक्रमार्थी प्रकट होता और जिसके साथ का व्यक्ति होता वह दूर से उसका स्वागत चिल्ला चिल्लाकर करने लगता । अपने दल का अभी एक भी यात्री नहीं आया था हम लोग गाड़ियों सेउतर कर नदी के जल में पॉव देकर बैठते कभी इध उधर घूम आते । अंत में थक कर पास ही गोल गोल पत्थरों के ढूह से पड़े थे उन पर बैठ गई एक व्यक्ति आकर बोला इन पत्थरों पर मत बैठिये । प्रष्नवाचक दृष्टि से उस व्यक्ति की ओर देखा तो बोला ,‘इन पर ओम नमः षिवाय लिखा है ’ ।
चौंक गई यह तो देखा था उन पर कुछ खुदा है पर ध्यान नहीं दिया हर पत्थर पर बांग्ला भाषा में ं ओम नमःषिवाय लिखा था अद्भुत ,वहॉं जितने भी गोल गोल पत्थर थे हजारों की संख्या में सब पर जैसे सधे हाथों से छेनी हथैाडे़ लेकर करीब आधा सेंटीमीटर गहरे और चार चार इंच बड़े अक्षर खुदे हुए थे । मैं जिसे पत्थरों की ढेरी समझ रही थी वह किसी की आस्था थी विष्वास था लेकिन इतनी मात्रा में ओम नमः षिवाय किसने और क्यों लिखे कब खोदे कोई नहीं बता पाया। और फिर खोद कर क्यों यूंही छोड़ दिये, ऐसा कोई जानकार मिला नहीं बाकी तो हमारे जैसे यात्री थे । जरा सी भाषा का फेर होते ही वे पत्थर मात्र थे षिव हो गये एक न दो नहीं सैंकड़ों हजारों कुछ पत्थर नदी में भी दिख रहे थे
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