Thursday, 17 October 2013

kala yeh bhi hai

हमारे घर के पीछे बस्ती है , बस्ती  जो हर एक की आवश्यकता है  फ्लैट दुकान  कोठी फैक्ट्री कुछ भी आपका हो लेकिन  प्रारंभ वहीं से होता है उनके जागने के साथ शहर जगता है  और पूरे शहर मे  हलचल  शुरू होती है  वहां देश का भविष्य भी कूदता  फादता  रहता है  उन पर समय ही समय है  क्योंकि सरकारी स्कूल  सबको नहीं कुछ को जाना  होता है और  वह भी केवल मिड डे मील  के समय  बाकी  समय क्या करें पर कला उनके पास भी होती है  . बस्ती है तो मंदिर होगा ही  मंदिर है तो उसमें प्रति दिन उत्सव भी होंगे ही  इन छोटे छोटे  बच्चों को हर उत्सव मैं भाग लेते देखा है  टीवी मैं देख देख कर   अभिनेता अभिनेत्र्यों को मात करते  डांस करते देखा है  लेकिन साथ ही देखा  है कल्पना को साकार करते। पान  मसाले के डिब्बों  बना झाड़  पाउच  से बने पंखे मंदिर की सजावट  के लिए  पन्नियों और  बड़े पाउच  क़तर क़तर कर  डोरी पर चिपका कर  पूरी बस्ती  झालरों से झिल मिल कर दी पहले सजाया देवी का दरबार  फिर जलाया  रावण  धूमधाम से।  दो दिन इन बच्चों की कला देखी  किस तरीके से चार वर्ष से लेकर दस बारह वर्ष  तक के लड़के लड़कियां  रावण  का निर्माण कर रहे थे  फलों की पेटियों  को पीट कर  फंटिया  बने उनमे से ही कीलें निकाल कर ईंट  से कीले सीधी  की फिर अख़बारों को लपेट कर फटीयों को  जोड़ जोड़ कर सात फुट  ऊँचा रावण  बना लिया  सूखी टहनियों और  फलों की  पेटियों में  काम  मैं  ली जाने  फूस  लपेट कर  हाथ बनाये बांस चीर चीर कर चेरा बनाया  कितने प्रसन्न थे बच्चे  न हाथ काटने का दर  न ईंट लगाने का दर न सड़क का इन्फेक्शन का डर  न कूड़े का संक्रमण  केवल उत्साह उत्साह और उत्साह  और उल्लास जलते हुए रावन की अग्नि की दहक मैं दमकते चेहरे थाली लोटे को बजा कर संगीत की धुन निकालते चेहरे कला का अप्रतिम रूप थे वे कहते छोटे छोटे  चेहरे

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