Monday, 24 December 2012

ना  जाने  कब वक्त  खिड़की  पर  आ  बैठता  है
और दस्तक देकर उड़  जाता है
 उसकी  आहट भी नहीं  सुन पाते है
 कब बालों  मैं  सवेरा कर जाता है
हम समझतें हैं  भोर  हो गई
टांग कर  दोपहरी  को अलगनी पर
 रात की सियाही भर  जाता है
जब  घोर अँधेरा  हो जाता है
लगता है वक्त की  सांसें थमी थमी सी
बीत जाएगी  ऐसे  ही जिंदगी
 दीवाल पर  टंगे कैलेंडर  की तरह
तारीखें वही  रहेंगी
तस्वीर  बदल जाएगी
 काल बांधे  वक्त को
लादकर    कन्धे  चला
वक्त  के  टुकड़ों  को  छितरा
मुस्करा  कर चल  दिया
जागते  सपनों  को बुनकर
चाँद  तारे  टांग  दिए
वक्त ने   तारे  नोच दिए
चाँद को झपट कर
खोंस लिया बालों मैं
वक्त भी क्या गुल खिलाता है
बच्चों की तरह पांव दबा कर
बगल से  निकल जाता है 

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