Sunday, 14 December 2025

आ रहा है नव वर्ष

 आ रहा है नया वर्ष

नया वर्ष आ रहा है , फिर से हम अपनी अपनी दीवारों से कलैंडर उतार देंगे। कुछ दिन कील नये कलैंडर के इंतजार में खाली रहेगी या पुराना ही लटका रहेगा, क्या वास्तव में कुछ नया होता है। फिर नई तारीखें आयेंगी एक  साल पुरानी तारीख नई होकर झड पंुछ कर चमकेगी पर वही रहेगी दिन वही रहेगा वैसे ही़ । मौसम भी तो वही आता है पर कुछ बदलता नहीं है । एक नया संकल्प लेते हैं कि हम आने वाले वर्ष में दुनिया बदल देंगे । चाहते हैं कि हमारे लिये संकल्प को निभायें दूसरे । हम अपने को नहीं बदलेंगे । वही 26 जनवरी आयेगी ,बड़े बड़े नेता अफसर देष भक्ति के गीत गायेंगे और नहीं बता पायेंगे कि यह गणतं़त्र दिवस है या स्वतंत्रता दिवस , झंडे का कौन सा रंग ऊपर रहता है और किसलिये ये रंग लिये गये हैं वे एक ही रंग जानते हैं वह है सत्ता का रंग और उसके लिये वे फिर से देष बेचने के लिये तैयार हो जायेंगे ।

      बसंत के आते ही बेटियों को षिक्षित करने के लिये हम बेचैन हो उठेंगे क्योंकि ,क्योंकि सरस्वती षिक्षा की देवी है तथा देष को षिक्षित करना हमारा कर्तव्य है । लेकिन षिक्षा के लिये आवंटित पैसे को  समाज के लिये नहीं अपने घरों को भरने के लिये बेचैन हो उठते हैं। लाखों बच्चों के नाम स्कूल में लिख जाते हैं पर स्कूल खाली  षिक्षक नदारद और कागजों में सब मौजूद बच्चे सड़क पर और षिक्षा की कीमतें बढ़कर जमीनी कारोबार करती रहती हैं ।

      होली के साथ सद्भाव का पाठ पढ़ाते हैं बुराई की होली जलती है और अधिक सांप्रदायिकता फैल जाती है । अब जरा जरा सी बात पर एक दूसरे के धर्म आहत हो जाते हैं । समाज में बबाल फैलाना है तो कहीं भी कुछ अपमानजनक लिख दो या मांस उछाल दो  । बवाल तैयार, चाहे जितना उपद्रव करालो हमारी युवा ष्षक्ति बेकार है ही  दिषा हीन है कुंठित दमित भावनाऐं सामने उछाल मारती हैं । उनका उपयोग कुचक्र रचते हुल्लड़बाज । कहीें गाय का मसला तो कहीं पैगम्बर के लिये कहना कोई मंदिर में गाय काट देगा । इसलिये कि वर्तमान सरकार को गाली दे सके और अपना वोट बैंक तैयार कर सकें और समान लूटकर बेगुनाहों को उनके न किये गये गुनाहों की सजा दें ।

    ष्षहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित हर वर्ष करेंगे पर नये नये ष्षहीद समाने आयेंगे । देष को आजादी दिलाने के लिये जान गंवाने वाले अब ष्षहीद नहीं हैं अब देष के लिये लड़कर जान गंवाने वाले अब ष्षहीद नहीं हैं हॉं  सीमा लांघने वाले षहीद हैं या उपद्रव कर जेल गये लोग ष्षहीद हैं ।

      पर्यावरण दिवस मनायेंगे जोर ष्षोर से पेड़ लगाते फोटो खिचायेंगे किर भूल जायेंगे कि वह डाली कहॉं सूख रही है । चुपचाप पेड़ काटकर बिल्डिंग बनवायेंगे गणेषजी की पूजा करेंगे ,देवीजी के आगे नाचेंगे दशहरा मनायेंगे जमुना गंगा को प्रदूषित कर प्रसन्न हो रहे हैं हमने देवता मना लिये अब हमारा कौन बिगाड़ कर सकता है । दो अक्तूबर के साथ तहखानों में पड़ी गांधीजी की तस्वीर चमकायेंगे ।उनकी बातों को दोहरायेंगे। उनके बताये मार्ग पर चलने के लिये प्रतिज्ञा करेंगे फिर भूल जायेंगे अगले वर्ष तक के लिये ,फिर तस्वीर किसी कोने में टंग जायेगी या पुनः तहखाने पहुंच जायेगी।

   रावण जला रहे हैं उसने सीता का अपहरण किया लेकिन सीता को आहत नहीं किया यहॉं अबोध कन्याऐं लड़कियॉं, महिलाऐं दंुर्दान्तों के हाथों दुर्दषा प्राप्त कर मार दी जाती हैं जैसे किसी रबर के खिलौने को तोड़ा मरोड़ा और फैक दिया । उन्हें कुछ नहीं होता सुघारने के नाम पर पुरस्कृत किया जाता है ।

    नव भोर की आषा में फिर कलैंडर बदलता है लेकिन परिस्थितियॉं और बदतर होती हैं बात असहिष्णुता भेदभाव जातपॉंत मिटाने की स्त्रियों के उन्नयन की भ्रष्टाचार मिटाने की करेंगे । अपना देना पड़े तो गाली देंगे और लेना पड़े तो अधिकार । चाहेंगे पल भर में दुनिया बदल जाये साफ हो स्वच्छता हो क्योंकि कहा गया है पर हम खुद कुछ नहीं करेंगे गंदगी फैलायेंगे और गाली देंगे कि सफाई नहीं हुई ।

    पाकिस्तान को धोखेबाज कहकर गालियॉं देंगे पर अपने देष के गद्दारों को कुछ नहीं कहेंगे जो असली भितरघाती हैं । लंका रावण की वजह से नहीं गिरी विभीषण की वजह से नष्ट हुई। धिक्कार तो ऐसे लोगों को हैं ।


Tuesday, 9 December 2025

jab hum hans pade

 मेरी कामवाली अभी पन्द्रह दिन की तीर्थ यात्रा से होकर आई है पूरी बस उन्ही की बिरादरी की थी। स्वाभाविक है मैं बाल्मीकि बिरादरी की बात कर रही हूँ और सब मंदिरो में जाकर पूजा अर्चना की प्रसाद चढ़ाया गंगा नहाये पर कहीं न उन्हें रोका गया न टोका गया। वो सभी त्यौहार हम सवर्णाे से अधिक विधि विद्यान से करते हैं देवी पूजा करते हैं तब उनकी देवी अस्पर्स्य हुई और सवर्णो को शुद्ध यह समझ से परे बात है। 

जरा सा दिमाग खुला रखें तो जाति विरादरी सब खत्म हो जायेगी अब यदि घरों में शौचालय इस प्रकार के बन गये हैं कि इनकी सफाई घर के सदस्यों को ही करनी पड़ती है तब घर के सब लोग एक दूसरे को न छुए सब पर एक नजर डाली जाये तो समाज में छोटे छोटे विग्रह बड़े बड़े नासूर बने हैं वह केवल सोच को छोटी करके देखने के कारण। 

अब मैला ढोने की प्रथा यदि सिमट कर कुछ स्थानों पर रह गई होगी तो इतना नहीं पता क्योंकि गाँवों में शौचालय जहाँ नहीं हैं वहाँ सारे खेत ही शौचालय होते हैं वहाँ मल उठाने का सवाल ही नहीं है कुछ घर अवश्य होंगे पर शहर अब बहुत दूर हो चुके हैं इस परिस्थिति से जितने भी वाल्मीकियों से रूबरू होती है सभी यह कहते हैं कि अब हमारी पीढ़ियों में यह काम नहीं होता है। सड़क झाड़ते हैं वहाँ कूड़ा उठाते हैं। सब कुछ उठा कर भरते हैं तो घरों में माँ अपने बच्चे का मल उठाती है। सब अपना मल हाथों से साफ करते हैं। घरों का कूड़ा उठाते हैं सड़को पर घरों का ही कूड़ा उठाते हैं जब कूड़ा घर से झाड़ने वाले नहाकर शुद्ध हो सकते है तो उठाने वाले क्यों नही ?